राजनीति

मनरेगा, सरपंच की मेड़ और भेड़ों का रेवड़

हमारे देश के अधिकांश गाँवों में एक पटेल रहता हैं. वह पटेल ही उस गाँव का सरपंच हुआ करता हैं. उसके पूर्व उस पटेल के पिताजी व पिताजी के पूर्व उसी पटेल के दादाजी उस गाँव के सरपंच हुआ करते थे. लेकिन अब कुछ वर्षों से कुछ गाँवों की सरपंच की सीट महिलाओं की लिए आरक्षित हो गयी तब से उन पटेलों की धर्मपत्नियां गाँवों की सरपंच बन गयी हैं. लेकिन ग्राम पंचायत के सारे कार्य सरपंच पति ही देखते हैं. क्याँ महिलाओं के लिए सीट आरक्षित कर देने से ही महिला सशक्तिकरण का सपना सच हो जाएगा?  ग़रीब किसानों का अपनी कृषि भूमि से गुज़ारा नहीं हो पाता है क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी कृषि भूमि के बँटवारे से अब उनके पास नाम मात्र की कृषि भूमि बची हैं. उन्हें मजदूरी करके ही अपना व अपने परिवार का पेट पालना पड़ता हैं. सरकारी दस्तावेज़ों व सरकारी आंकड़ों के अनुसार गाँवों में ग़रीबी उन्मूलन की `मनरेगा` ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना का क्रियान्वयन भी अन्य लोककल्याणकारी योजनाओं के समान प्रभावी ढंग से हो रहा है.

इस मनरेगा योजना में प्रत्येक वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के वयस्क सदस्य को ग्राम पंचायत द्वारा 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध करवाना होता है यदि किसी ग्राम पंचायत द्वारा किसी ग्रामीण मजदूर को एक वर्ष में 100 दिन से कम दिनों का रोज़गार प्रदान किया गया हो तो उसे उतने दिनों का बेरोज़गारी भत्ता ग्राम पंचायत द्वारा देना होगा. बेरोज़गारी भत्ता मिलना तो दूर की बात है, मजदूरों ने जितने दिन काम किया है उतने दिनों की मजदूरी भी नहीं मिली हैं. यदि किसी ग्राम पंचायत द्वारा किसी ग्रामीण मजदूर को साल में सौ दिन का रोज़गार भी मिल जाए, तब भी एक साल में सौ दिन के रोज़गार से किसी ग्रामीण मजदूर की जिंदगी बेहतर कैसे हो सकती है? गाँवों की ग्राम पंचायतों ने ग़रीब ग्रामीण परिवार के वयस्क सदस्य को मनरेगा योजना के जॉब कार्ड प्रदान किए जिसे प्राप्त करने के लिए ग़रीब ग्रामीणों को कई पापड़ बेलने पड़े थे. ग़रीब ग्रामीणों को तो पापड़ बेलने की आदत हैं. गाँवों की ग्राम पंचायत प्रतिवर्ष काम में लगे मजदूरों की संख्या से अधिक जॉब कार्ड बनाकर सरकार से आवश्यकता से अधिक फंड हासिल कर लेती हैं. अधिक फंड हासिल करके ग्राम पंचायत उस फंड का उपयोग करती है. फंड के उपयोग से ही आंकड़े बनते है, आंकड़ों से ही सरकार चलती है और आंकड़ों से ही देश का विकास होता हैं. आंकड़ों के तराजू में ही गरीबों की गरीबी को बार-बार तोला जाता हैं.

गाँवों में एक नदी होती है. उन नदियों पर हर वर्ष मनरेगा के अंतर्गत एक पुल बनता है और वह पुल पहली बरसात में ही बह जाता हैं. गाँवों में एक तालाब भी होता है. मनरेगा योजना के अंतर्गत तालाब की सफाई करवाई जाती है लेकिन गाँव के लोग तालाब में ही कचरा डालकर तालाब को कचरे से वापस भर देते हैं. गाँवों  में विकास कार्य तो होते है उन विकास कार्यों को साधारण आँखों से नहीं देखा जा सकता है उसके लिए दिव्य दृष्टि चाहिए. मनरेगा में सरपंच के खेत की मेड़ ही बार-बार बनती हैं. देश में आज भी सामंती व्यवस्था मौजूद हैं. ग्रामीण मजदूरों को मनरेगा का जॉब कार्ड और भी कई तरह के कार्ड सरकार ने उपलब्ध करवा दिए लेकिन उन्हें तो सरपंच के खेत पर ही काम करना है क्योंकि सरपंच के खेत पर काम करते हुए उनकी कई पीढ़ियां बीत चुकी हैं. सरपंच के खेत में मजबूरी में मजदूरी करने का वायरस उनके जींस में ही मौजूद हैं. इसलिए तो मनरेगा में सरपंच के खेत की मेड़ ही बार-बार बनती हैं. भेड़ों के रेवड़ को हाँकने का अधिकार भी तो सरपंच को ही मिला हुआ हैं. भेड़ में एक ख़ासियत होती है कि भेड़ कभी भी तर्क-वितर्क नहीं करती हैं.  भेड़ की यही ख़ासियत ग्राम पंचायत और सरपंच की ताक़त हैं. मजदूरों के शोषण पर कई साहित्यकारों और पत्रकारों ने अपनी कलम चलाई है, कई छात्र-छात्राओं ने शोधपत्र लिखे है लेकिन मजदूरों की हालत दिनों दिन बद से बदतर होती चली गई हैं.

मनरेगा योजना में एक ख़ास बात यह है कि इस योजना में पुरूषों और महिलाओं में कोई भेदभाव नहीं हैं. पुरूषों और महिलाओं को समान मजदूरी का भुगतान होता हैं, जबकि खेलों, फिल्म उद्योग एवं दूरदर्शन में पुरूषों और महिलाओं को पारिश्रमिक का एक समान भुगतान नहीं होता हैं. इसलिए सिर्फ़ महिला सशक्तिकरण के संबंध में `मनरेगा` सरकारी दस्तावेज़ों और सरकारी आंकड़ों में प्रभावी भूमिका निभा रहा हैं. `मनरेगा` योजना में ग्रामीण मजदूरों की प्रगति का सपना केवल कागज पर ही पूरा हो रहा हैं. सरकार सिर्फ़ क़ानून बनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं. जब तक ग्रामीण मजदूरों को उचित मजदूरी और संगठित क्षेत्र के मजदूरों के समान सुविधाएँ नहीं मिलेगी तब तक यह समस्या ऐसी ही बनी रहेगी. इस योजना का मुख्य उद्देश्य ग़रीब ग्रामीणों को गाँवों में ही रोज़गार प्रदान कर उन्हें पलायन से रोकना था. मनरेगा योजना ग्रामीण मजदूरों के पलायन पर रोक लगाने में पूर्ण रूप से असफल हुई हैं.  कई ग्रामीण मजदूर शहरों में मजदूरी कर रहे हैं. इस योजना में ग्राम पंचायतें खेती-बाड़ी के काम के दिनों में ही ग़रीब ग्रामीण मजदूरों को मनरेगा के कार्यों में रोज़गार प्रदान करती है जिससे किसानों को खेती-किसानी कार्य के लिए मजदूर नहीं मिल पाते है और खेती का काम दुष्प्रभावित होता हैं. इसी कारण से छोटे किसान खेती-किसानी छोड़ कर रोज़गार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. अधिकांश गाँवों में मनरेगा में स्थायी और टिकाऊ संपत्ति का निर्माण भी नहीं हुआ हैं. मजदूरों को मजदूरी के भुगतान में विलंब होता है एवं विलंब भुगतान के लिए किसी प्रकार का ब्याज या मुआवज़े का भुगतान भी नहीं होता हैं. अधिकांश राज्यों में मनरेगा मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान भी नहीं होता हैं. अब नीति आयोग द्वारा `मनरेगा` योजना की समीक्षा की जानी चाहिए क्योंकि इस योजना में एवं योजना के क्रियान्वयन में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता हैं. क्याँ न्यू इंडिया का लक्ष्य इन ग्रामीण मजदूरों के प्रति उदासीन रवैया अपनाकर हासिल होगा?

दीपक गिरकर

दीपक गिरकर

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