यादों का बसेरा
सर्दियों की शाम खिड़की के पास बैठकर काफी पीना उसका पंसदिदा शौक था, हमेशा वह इसी तरह बाहर के नजारे देखा करती ।
पार्क मे खेलते बच्चे ,चिडि़यों का चहचहा कर नीड़ की तरफ लौटने का दृश्य ,ढलते सूरज की लालिमा उसे अपनी ओर आकर्षित करते थे।
पर अचानक उसकी जिन्दगी में आये हादसे ने सब उलट पुलट दिया।
पिता की मृत्यु ने झंझोड़ दिया उसे ,जिन्हे वह रवि से भी ज्यादा चाहती थी। इस हादसे को दिल से लगा बैठी थी ,आंसू रूकने का नाम न लेते दिनों दिन वह अपने आप से भी दूर होती गई अब तो उसने खिड़की को भी भुला दिया था ।
रात दिन बस एक ही रट “रवि पापा मुझे छोड़ गये ,अब मैं कैसे जियुंगीं”
पति रवि के लाख मनाने के बाद वह तैयार हुई थी उनके साथ शिमला जाने को फिर सर्दियों का मौसम घिर आया ये एक साल बहुत लम्बा था।
होटल पहुँच कर बर्फ के नजारे देखने खिड़की से बाहर झांकी तो देखा मौसम कितना खुशनुमा लग रहा था खिड़की से कुछ दूर बर्फ में एक जोड़ा चुहलबाजी में एक दूसरे पर बर्फ से मस्ती में लगा था, उसे भी उस जोडे़ में अपने पुराने दिन याद आ गये कभी वह भी रवि के साथ ऐसे ही जिन्दगी को जिया करती थी मौसम और गहराने लगा था पीछे कहीं दूर गाने की आवाज ने उसे अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर दिया था “जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम।”
वो उठी काफी आर्डर कर रवि के साथ पहले की तरह वक्त बिताने के लिये खिड़की के पास बैठ गई पर आज अकेले नहीं ,वहाँ दो कुर्सियों को पाकर रवि निहाल हो गया उसे इस तरह खिलखिलाता देखकर ।
खिड़की के बाहर आसमानों के उस पार से पिता की आत्मा भी पुत्री को देख मोक्ष को प्राप्त हो गई।
अल्पना हर्ष