इंतज़ार
इक कुर्सी और खिड़की
जैसे ज़िन्दगी सिमट के रह गयी थी वहीं
जीवन की सांझ
न खत्म होता इंतज़ार
इंतज़ार भी अपने दिल के टुकड़ों का
जो दिल मे रहते है मगर
नज़रों से कोसों दूर
ज़िन्दगी सिमट के रह गयी थी
इक कुर्सी और खिड़की
जीवन की सांझ ….
खिड़की के पुराना कांच…
मेरी आँखें भी धुंधला गयी सी
फिर जाने क्या देख पाती थी
वो बाहर
शायद वो वहां बैठ कर बाहर नही
अतीत में झांकती है
खुद के भीतर देखती है…
— सुमन “रूहानी”