निर्भया-न्याय ?
थी निर्भया या दामिनी,
या मात्र नारी याचिनी।
सृष्टि-अभया दिव्य पूजित,
दुख सह रही जग-दायिनी।।
कैसी विधा है न्याय की,
क्या न्याय-परिभाषा रही।
पलड़ा बराबर यदि नही,
क्या माप की आशा सही।।
क्षत विक्षत तन मन किया ज्यों,
अवरुद्ध कर दो प्राण त्यौ।
कोख माँ की कह रही है,
दण्ड में अब वेदना क्यों।।
दम घोंटना है सत्य का,
फिर तराजू क्या थमाना।
निष्पक्षता बस चाहती,
आँख की पट्टी हटाना।।
बनकर रहे क्यूँ यंत्र सम,
माप का काँटा न देखा।
है जगत कैसा विधाता,
आह! कैसा नियति लेखा।
कुछ सबल वह दामिनी थी,
नवयौवना मानिनी थी।
लड़ सकी वह दानवों से,
उन कथित कुछ मानवों से।।
थी जान जब तक जान में,
लड़ती रही निज मान में।
चीखती रोती तड़पती,
तज गई तन अभिमान से।।
पर क्या लड़ें चीखें कहें,
सुकुमार कलियाँ बाग की।
डस रहे नित तन बदन को,
कुछ पातकी नर-नाग ही।।
सम्बन्ध दूषित कर रहे,
नर को कलंकित कर रहे।
रोते तड़पते नत हृदय,
क्या जी रहे क्या मर रहे।।
वासना कैसी पिपासा,
गढ़ रहा नर क्यों विभाषा।
क्यूँ सुता भगिनी न माने,
कर रहा कुत्सित दुराशा।।
सौम्यता है मूक रोती,
है अनघ पर आह ढोती।
क्यों जगत के इस भँवर में,
शुक्ल शुचिता लाज खोती।।
न्याय यह कैसा अनोखा,
हो रहा इक मात्र धोखा।
आस घुटती जा रही है,
मनुजता पथरा रही है।।
वहशीपना क्यूँ भरा सा,
धिक् क्षुधा धिक् धिक् पिपासा।
न्याय देगा ईश ही अब,
दे रहा मन खुद दिलासा।।
वैसी दुखन वैसी चुभन,
दुख-दायिनी पीड़ा वही।
यदि दे सका सृष्टा कभी,
तब न्याय मानूगीं सही।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’