क्या सुनाना था तुम महफ़िल में ये क्या सुना आए
अगले शायर का कद शायद तुम्हें मालूम नहीं है
बस एक ही वस्ल की उम्र थी तुम्हारे इंतज़ार की
इश्क़ करनेवालों की हद शायद तुम्हें मालूम नहीं है
दरिया का उमड़ना देखा है समंदर का तूफाँ बाकी है
सरफिरे मौजों का जद शायद तुम्हें मालूम नहीं है
नक़ाब से सीरत तो दूर सूरत भी नहीं बच सकती है
शरीफ़ गुनाहगारों का बद शायद तुम्हें मालूम नहीं है
सियासत सोती कहीं और है और जागती कहीं और
बेशर्म सत्ता का मद शायद तुम्हें मालूम नहीं है
— सलिल सरोज