लघुकथा

मटके का श्राद्ध

” बहू मटके को फोड दे …वो गांव से खबर आई है कि कुटुम्ब के चाचा ससुर शांत हो गये है”
“पर मांजी अभी दो दिन ही तो हुऐ है इसे लाये ..कितना ठन्डा करता है पानी ..फ्रिज भी इतना ठन्डा न करे”
“बहू जब कोई शांत हो जाता है तो पुराना मटका फोड देते चाहे एक दिन पुराना ही क्यो न हो”
“पर मांजी वह तो बहुत उम्रदराज थे न ..उनके जाने पर बेचारे मटके का क्या कसूर ”
” बहस मत कर ..जो कहा है कर ” सास ने फरमान सुना दिया अब बहू की हिम्मत न हुई कुछ आगे बोलने की ।
पूरे तीन सौ रूपये में लगाया था मटका कुम्हार ने ..कितनी प्यारी तो टोंटी लगी है ..ये रीति रिवाज भी न …बहू मन ही मटके को हाथ में लेकर बडबडा रही थी ।
एक नजर मटके पर डाली तो लगा मटका भी  कुछ कह रहा …
” मुझे मत फोड़ो ..मै भी सबको अपनी ठन्डक देकर परोपकार करना चाहता हूँ …”
हाथ रूक गये बहू के , लेकिन मजबूर थी फोड़ना पडा ।
घर में नये मटके ने जगह ले ली ।
लेकिन बहू ने टूटे मटके की मन की बात सुन ली थी , आधा टूटा मटका लेकर उसमें मिटटी खाद पानी डालकर एक फूल का पोधा लगा दिया ।
अब मटका बिखर कर टूट कर भी एक पोधे को जीवनदान दे रहा था …और खिला हुआ फूल मानो कह रहा हो कि अगर जिन्दगी में खुद कितना भी टूटकर बिखर जाना पर दूसरों के जीवन में हमेशा खुशियां बिखरेना।

रजनी चतुर्वेदी

रजनी बिलगैयाँ

शिक्षा : पोस्ट ग्रेजुएट कामर्स, गृहणी पति व्यवसायी है, तीन बेटियां एक बेटा, निवास : बीना, जिला सागर