इस जहाँ में ख़लिश मैं ही हूँ दीवाना
इस जहाँ में ख़लिश मैं ही हूँ दीवाना या
रात की ख़ामोशी सुनता है कोई और भी
आसमान के नीदों में चहलक़दमी करके
धरती के ख़्वाब बुनता है कोई और भी
हवा के ज़ुल्फ़ों से बिखरे आफ़ताबों को
ओंस की डाली में चुनता है कोई और भी
धूप के टुकड़ों से सिली मख़मली चादर
जिस्म पे अपने ओंढ़ता है कोई और भी
फ़िज़ा के मदहोश होंठों से जाम पी कर
सुरमई आँखों को मूँदता है कोई और भी
सलिल सरोज