लघुकथा – नई सोच
रवीन्द्र के माता पिता के आकस्मिक देहावसान के पश्चात उसके निसंतान दंपति चाचा चाची की देख रेख में वह पला|अब अच्छी नौकरी के पश्चात वे दोनों उसकी शादी का सपना देख रहे थे|
‘रवीन्द्र, मथुरा वाले शाम को आ रहे है तुमसे मिलने, जरा जल्दी आ जाना आज दफ्तर से|’
चाची ने कहा और शाम तक बहुत तैयारियों के साथ ढेरों आँखों ने देर तक रवीन्द्र का इंतजार किया पर वो तब आया जब ऊब कर मथुरा निवासी मथुरा को रवाना हो गए|
चाची ने सोचा वह व्यस्त रहा होगा|फिर रिश्ता देखा गया लेकिन रवीन्द्र फिर नहीं आया|अब चाचा चाची के कान खड़े हो गए कि जरूर कुछ गड़बड़ है|कहीं कोई चक्कर-वक्कर तो नहीं!
‘अब बहुत हो चुका,शाम को बात करनी ही पड़ेगी|’
‘रवीन्द्र क्या बात है,तू अपनी शादी में रुचि क्यों नहीं ले रहा,देखो मथुरा वाले साज़ों सामान के साथ कैश भी दे रहे है और इटावा वाले,वो तो कैश के साथ गाड़ी भी देने को खुद ही राज़ी है और देख अगर तेरा कोई चक्कर-वक्कर है तो भूल जा,हम इसकी कभी मंजूरी नहीं देंगे,अब अपनी मंशा तू बता दे|’
रवीन्द्र बड़ी सहजता से कहता है, ‘मेरा कोई प्रेम-व्रेम का चक्कर नहीं है|’
इतना सुनने भर से दोनों के उखड़े चेहरे कुछ सधे|
‘पर मैं बिकना भी नहीं चाहता,आप कोई अनाथ लेकिन अच्छी लड़की देख कर बताए मैं सहर्ष उससे विवाह कर लूँगा|’
ये सुनते ही दोनों के पैरों तले जैसे ज़मीन ही सरक गई|
चाची की कार के शीशे टूट गए| चाचा जी के नोटों की गद्दी में आग लग गई नई सोच के अंधड़ से|
— अर्चना ठाकुर