जिद
“मैं तो न, साथ ही जाऊँगी, चाहे कुछ हो जाये” ये शब्द थे 22 वर्षीय नवविवाहिता ‘ऋतू’ के जिसे अभी गृहप्रवेश किये हुये मात्र डेढ़ महीने ही हुये हैं।
दादी सास ने सर पर हाथ मारते हुये कहा “हे भगवान! जाने कितै जा बलाय उठा के ले आये, हमने कितनो कही के जादा पढ़ी लिखी है मौड़ी, ब्याव न करौ लेकिन डुकरिया की सुनत को है आजकल।”
सासो माँ ने भी प्यार से समझाया, “बेटा भैया अपने पुश्तैनी काम से जा रहो है, तो फालतू की जिद्द न करो, हँस के विदा करो, और फिर से छह महीना में आ तो जैहे न, फिर घूम फिर लियो।”
“हम फालतू की जिद नही कर रहे मम्मी, अगर नही ले जाना चाहते तो हमें हमारे मायके भेज दो, हम वहीं रह के पढ़ाई कम्प्लीट करेंगे और फिर नौकरी ।”
ससुर जी ने अपनी राय रखी, “लेकिन हमारे यहाँ पीढ़ियों से से यही हो रहा है मर्द अकेले ही बाहर जा के कमाते हैं, आखिर तुम्हारी जेठानियां और चाची सास भी तो यहीं न रहती हैं, बोलो….. ??”
“वो …..वो….अगर ये यहीं रहें तो हम भी यहीं हैं, नहीं तो हमे हमारे घर भिजवा दीजिये।”
“ये कैसे सम्भव है?”
काफी हील-हुज्जत के बाद आखिर सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि बाकी तीनों बहुएँ भी साथ जाएंगी।
ऋतू की दोनों जेठानियों और चाची सास के दिल से उसके लिये ढेर सारी दुआएँ निकल रहीं थी, और साथ ही कुछ जलन भी हो रही थी कि उन्होंने ये क्यों नही सोचा।
©पूजा अग्निहोत्री
ऋतू ने आते अछि शुरुआत करदी .एक इन्कलाब ही आ गिया . लघु कथा, नए ज़माने की औरतों की सोच बदलने वाली है .