रोटियाँ
“चाची,रोटी क्या इतनी भी गोल हो सकती है,मानो कि पूनम का चाँद हो जैसे और वो भी बिना किसी दाग के। अगर तुम ऐसी ही रोटियाँ मुझे खिलाती रही तो मैं तो पूरे महीने का राशन एक दिन में खा जाऊँगा।” कौशल चाची की तारीफ करते-करते न जाने कितनी रोटियाँ खा चुका था।
चाची बोली ” बेटा,ये तो बड़ी अच्छी बात है कि मेरे हाथ की रोटियाँ तुझे अच्छी लगती हैं,पर ये रोटियाँ आज मैंने नहीं बनाई हैं। ”
“तुमने नहीं तो फिर किसने और तुम्हारे जैसी सुंदर रोटियाँ और कोई बना सकता है क्या चाची ? तुम भी सुबह-सुबह ही मुझे छेड़ रही हो। ” कौशल हतप्रभ होकर चाची की तरफ इस तरह देखकर बोला मानो चाची के इस उद्घोष से उस के ऊपर सौ घड़े पानी पड़ गए हों।
”बेटे, कल शाम ही मेरे गाँव से पड़ोस में रहने वाली सुगंधा आई है। कई महीनों से कह रही थी कि उसे शहर घूमना है। सो मैंने बुला लिया। ”
तभी उधर से गुलाबी कमीज,सफ़ेद सलवार और हलके पीले रंग का दुपट्टा ओढ़े सुगंधा कुछ और रोटियां हाथों में लिए कौशल ले सामने खड़ी हो गई और पूछा “कितनी रोटियाँ दूँ, आपको? ”
कौशल ने शायद सवाल सुना नहीं या शायद उसे टकटकी बाँध के देखने के क्रम में सवाल को जान-बूझ कर अनसुना कर दिया। भूख तो मिट जाएगी कुछ रोटियों के बाद, पर अब जो प्यास सुगंधा को देखते ही शुरू हो गयी थी पता नहीं वो कब बुझेगी। सुगंधा को देखके कौशल को लगा की अभी-अभी किसी ओंस में लिपटी हुई चहलकदमी करती कोई भोर कमरे में दाखिल हुई है -बिलकुल साफ़, शफ्फाक, पवित्र और श्वेत। खुशबू ऐसी कि तितलियाँ फूलों को छोड़कर उसकी तरफ दौड़ी चली आ रही हों। चेहरे का गोरापन उगते सूरज का कोई अस्क और होंठ जैसे दो शोले एक साथ जुड़े हुए और दाँत मानो अनार के दाने। कौशल को लगा कि स्वर्ग से कोई अप्सरा उतर कर ज़मीन पर उसके लिए ही आ गयी हो।
“बेटा, कितनी रोटियाँ लोगे। वो कब से पूछ रही है। तुम पता नहीं कहाँ खोये हुए हो ?” अब कौशल चाची को क्या बताता कि वो कहाँ खोया और कहाँ डूबा हुआ है।
”चाची, तुम सुगंधा को शहर घुमाने जाओगी इस गर्मी में ?”
“बेटे, आज तो सुबह से बादल ने पाँव फैला रखे हैं। धूप तो है ही नहीं। और तुझे पता है मैंने एक काला चश्मा भी खरीद लिया है धूप से बचने के लिए।” चाची के इस अनेपक्षित जवाब से कौशल का चेहरा फीका पड़ गया, खिली हुई बाँछें किसी कोने में दुबक गयी। पर चाची, कौशल का मन पढ़ चुकी थी और बोली ” बेटे, इस उम्र में मैं कहाँ जाऊँगी ,वैसे भी मेरे पैरों में दर्द रहता है ,तुझे तो पता ही है। और ये चश्मा सुगंधा बेटी का है। मैं तो तुझसे पूछने ही वाली थी कि क्या तू सुगंधा को शहर घुमा देगा।
अँधे को क्या चाहिए -दो आँखे।
“चाची, वैसे मुझे आज डाकखाने तो जाना था, लेकिन तुम्हारी बात भी तो नहीं टाल सकता। ”
चाची कुछ बोली नहीं, बस मुस्कुरा कर रह गयी।
कौशल उठकर बोला ”चाची, आज तो बस मज़ा ही आ गया खाने का। तुम सुगंधा से बोलना की तैयार रहे। मैं अपनी छमिया मतलब बुलेट में पेट्रोल भरा के अभी आया।”
सुगंधा ने होंठों पे हलकी सी लाली, माथे पे छोटी बिंदी, आँखों में काजल, हाथों में चूड़ी, पैरों में पाजेब और जूती पहनकर चलने को तैयार होकर आई तो लगा कि आज कौशल के इंतक़ाम के दिन आ गए थे।
“अच्छा चाची , मैं इसे घुमाकर आता हूँ। शाम को भी ऐसी ही रोटियाँ मिलेगी ना! ”
सवाल चाची के लिए जरूर था मगर जवाब जिससे चाहिए था, उसने ही कहा ”जरूर मिलेगी, पहले शाम तो आने दो ”
बुलेट पर सुगंधा, कौशल के पीछे ज्यों ही बैठी, बिना किसी गियर के कौशल मानो उछल पड़ा हो।
”क्या हुआ ” सुगंधा बोली।
”कुछ नहीं, तुम ठीक से बैठ गयी ना? “‘
“‘हाँ”
“तो चलें”‘
“चलो”
बुलेट अभी कुछेक सौ मीटर भी नहीं चली होगी की हलकी-हलकी बारिश शुरू हो गयी।
“‘कहीं रूक जाएँ क्या ?” कौशल ने पूछा।
“नहीं, इतना तो अच्छा मौसम है और इतनी बारिश से तुम गल नहीं जाओगे। चलते रहो! ” कौशल को यकीन नहीं हो रहा था कि उसके बुलेट की पीछे वाली सीट पर बैठी लड़की इस तरह से बात कर रही थी मानो उसे जन्मों से जानती हो।
हवा के झोंकों के साथ जब बारिश की बूँदें उसकी लटों से छेड़खानी कर रहे थे तो सुगंधा बार-बार कोशिश करके अपनी नाज़ुक उँगलियों से उसे अपने कान के पीछे कर रही थी। आँखों को बंद करके सर को आसमान की तरफ करके मानो इस ख़ूबसूरत फ़िज़ाओं को अपने आगोश में भरने की कोशिश हर लम्हे के साथ कर रही हो। वो खुद को जी रही थी।
और ये सब नज़ारे कौशल बुलेट के मिरर में देख रहा था। पता नहीं कब उसके मन में ये बात घर कर गयी कि सुगंधा ही उसकी बुलेट की पिछली सीट की सदा की हक़दार बन जाए। कौशल ने पूरे दिन क्या किया , उसे कुछ भी याद नहीं। वो बस एक टक से सुगंधा की खूबसूरती में खो कर रह गया था।
शाम को जब चाची ने पूछा कि कैसा रहा सब कुछ तो सुगंध ही लगातार बोले जा रही थी और कौशल कुछ भी नहीं। जब सुगंधा चुप हुई तो कौशल ने चाची से कहा ” चाची, मैं क्या बताऊँ। जब ये शहर देख रही थी, तब मैं सिर्फ इसे देख रहा था। “‘
सुगंधा झेंप के अंदर चली गयी।
चाची, तुम सुगंधा और मेरी शादी की बात करो ना।
****
सुगंधा और कौशल की शादी के दो साल हो गए। अब उनकी छोटी सी इक गुड़िया जैसी बेटी है जो पूरे घर में तूफ़ान भी मचाने के काबिल है। सुगंधा का सारा समय बेटी को संभालने में चला जाता है। इसी कारण अब रोटियाँ कभी जली, कभी कच्ची,कभी अधकच्ची, कभी टेढ़ी तो कभी बेशक्ल ही बनती हैं। पूनम का चाँद तो दूर अब सिर्फ उसमें दाग ही दिखने लगे थे। बस वैसी नहीं बनती हैं जैसा कि कौशल खा कर सुगंधा का कायल हो गया था।
“सुगंधा, रोटी आज फिर जली हुई हैं। मैं अब तुम्हारे हाथ की रोटियाँ नहीं खा सकता। मेरा पेट खराब हो जाएगा इस तरह। “‘
“क्यों, कल तक तो रोटियाँ बड़ी प्यारी थी। आज क्या हो गया? और रोज़ एक जैसी रोटियाँ तो नहीं बन सकतीं। मैं भी इंसान हूँ। गलतियाँ हो जाती हैं। और बेटी के चक्कर में कुछ गड़बड़ हो भी गया तो क्या तुम एक दिन जली रोटियाँ नहीं खा सकते। तब तो तुम मेरे हाथ से ज़हर भी खाने को तैयार थे!” सुगंधा गुस्से में तमतमा के बोली।”सच कहा। तुम्हारी रोटियाँ अब ज़हर से कम थोड़ी न हैं। मुझमें ये ज़हर कितना भर गया है, शायद तुम्हें पता नहीं। मैंने ये तो बिलकुल नहीं सोचा था कि तुमसे शादी करके ठीक ढंग का खाना भी नहीं मिलेगा। ”
और फिर दोनों बिना खाए उठ गए और एक-दूसरे की तरफ मुँह फेर कर सो गए और बेटी बीच में रोती रही।
यह झगड़ा अब रोज़ का ही हो गया था। सुगंधा कोशिश करके भी कौशल के मन का खाना नहीं बना पाती थी और कौशल इस तरह के खाने का आदी नहीं हो पा रहा था।
“अच्छा चलो, आज मैं पहले जैसी रोटियाँ बनाऊँगी । तुम दोस्तों को बुला लेना शाम को ”
“‘पक्का ना “‘
“‘हाँ बाबा,पक्का “‘
शाम को सारे दोस्त खाने की मेज़ पर तैयार थे। पर दिन भर की परेशान और थकी हुई सुगंधा से वैसी रोटियाँ नहीं बनी और सारे दोस्तों के सामने ही उनकी लड़ाई हो गयी। और कौशल गुस्से में बड़बड़ाता घर से बाहर चला गया।
पीछे रह गए- बेसुध सुगंधा, बिलखती बेटी और कुछ रोटियाँ।