ऋषि दयानन्द के देश व मानवता के हित के अनेक कार्यों में एक कार्य वेदों का उद्धार
ओ३म्
ऋषि दयानन्द ने मानवता, समाज व देश हित के अगणित कार्य किये हैं। सब सुधारों का मूल वेदाध्ययन व वेदाचरण है। वेद मनुष्य को असत्य का त्याग करने और सत्य को ग्रहण करने की प्रेरणा करते हैं। वेदाध्ययन से अविद्या का नाश होता है और विद्या की वृद्धि होती है। मनुष्य वेदाध्ययन करते हुए ईश्वर व अपनी आत्मा के सत्यस्वरुप को जानकर व स्वाध्याय से ईश्वर की संगति कर अपने दुर्गुण, दुर्व्यस्न और दुःखों से दूर होता है। वेद सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं। मनुष्य का जन्म भी सत्य व असत्य को जानकर असत्य को छोड़ने और सत्याचरण करने के लिए ही हुआ है। मत-मतान्तरों में फंसा व्यक्ति सत्य मत व सत्य धर्म को प्राप्त नहीं होता। यदि उसे सत्य मत व सत्य विचारधारा को प्राप्त होना है तो उसे अपने मनुष्यकृत मत को कुछ समय के लिए भूलकर वेदों की शरण में आकर ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं वेदभाष्य आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना होगा। इसके बाद वेदानुयायियों का यह आग्रह कदापि नहीं होगा कि वह वैदिक धर्म व आर्यसमाज की विचारधारा को अपनायें। ऐसा करके मनुष्य सत्य व असत्य के स्वरुप को प्राप्त हो जायेगा और वह अपने विवेक से उस मत का वरण व धारण कर सकता है जिससे उसका इस जीवन में अभ्युदय होता हो और परजन्म में भी उसकी आत्मा व जीवन की उन्नति हो सके। संसार में ऐसे मत अधिक हैं जिनसे मनुष्य लक्ष्य के निकट न जाकर दूर हो रहा है और उसका अगला जन्म मनुष्य का होना भी संदिग्ध प्रतीत होता है।
वेद क्या हैं? इस बारे में सभी मत–मतान्तरों में भ्रान्तियां हैं। जो वैदिक धर्मी स्वाध्याय नहीं करते, आर्यसमाज के सत्संगों में नहीं जाते वह भी वेद के महत्व व स्वरुप को भली प्रकार से नहीं समझ सकते। इसके लिए सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन आवश्यक व अपरिहार्य है। सत्यार्थप्रकाश से वेदों के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होता है। वेद वह ईश्वरीय ज्ञान है जिससे मनुष्य का कल्याण होता है। वेद अविद्या व अज्ञान से सर्वथा मुक्त है। वेद हमें ईश्वर व जीवात्मा सहित संसार व अपने सभी कर्तव्यों व सत्य परम्पराओं का ज्ञान कराता है। ईश्वर का यह कर्तव्य है और मनुष्य का यह अधिकार है कि ईश्वर सृष्टि बनाने के बाद मनुष्योत्पत्ति करने पर मनुष्यों को अपने जीवन का भली प्रकार निर्वाह करने के लिए उसे उसके कर्तव्यों के बोध के लिए सत्य ज्ञान प्रदान करें। ईश्वर ने वस्तुतः इस आवश्यकता की पूर्ति सृष्टि के आरम्भ में की थी और मनुष्यों को अपनी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करने के लिए वेदों का ज्ञान दिया था। अमैथुनी सृष्टि के जिन ऋषियों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान दिया था उन्होंने ज्ञान परम्परा को जन्म दिया और उनसे पीढ़ी दर पीढ़ी यह ज्ञान प्राप्त होता रहा। यह परम्परा महाभारतकाल तक अक्षुण रूप से चलती रही और उसके बाद महाभारत युद्ध के परिणाम सहित आर्यां के आलस्य व प्रमाद के कारण वेदों का अध्ययन आदि न्यून होने के कारण वेदों के सत्य अर्थों का विद्वानों व जनसामान्य में ज्ञान लुप्त प्रायः हो गया। ज्ञान न होने पर इसका स्थान अज्ञान व अविद्या ने ले लिया जिसके परिणामस्वरुप समाज में अज्ञान व अव्यवस्था सहित अंधविश्वास, मिथ्या परम्परायें व सामाजिक असमानता, परस्पर अन्याय, शोषण, निर्धनों व दुर्बलों का शोषण एवं उत्पीड़न आदि भी आरम्भ हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी आते आते देश अज्ञान व अन्धविश्वासों में आकण्ठ डूब गया और इसके साथ ही आठवीं शताब्दी से विधर्मियों का गुलाम भी बना हुआ था। आठवीं शताब्दी से देश यत्र तत्र हत्या, शोषण, अन्याय व पक्षपात आदि से त्रस्त हो रहा था। मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति के भी समुचित साधन सुलभ नहीं थे।
ऋषि दयानन्द का सन् 1863 में वेद प्रचार के क्षेत्र में आविर्भाव होता है। उस समय वेद प्रायः लुप्त थे। वेदों का प्रकाशन नहीं होता था। इससे पूर्व एक बार इंग्लैण्ड में प्रो. मैक्समूलर व ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सहयोग से वेदों के अशुद्ध व प्रायः मिथ्या अर्थों का प्रकाशन हुआ था। वेदों के प्रकाशन का उनका उद्देश्य भारत को अंग्रेजों का गुलाम बनाये रखना था। इसमें सायण के मिथ्या वेदार्थों को यथावत् व तोड़ मरोड़ कर उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रस्तुत किया गया था। महर्षि दयानन्द ने वेदों के जो अर्थ किये वह सब मनुष्य के लिए कल्याणकारी व ज्ञानवर्धन में सहायक होने के साथ पूर्व ऋषियों के सत्य वेदार्थों के अनुकूल व ज्ञान-विज्ञान सम्मत थे। ऋषि दयानन्द मौखिक वेद प्रचार भी करते थे। उनके सत्संगों व सभाओं में वेदमंत्रों का उच्चारण, सन्ध्या व यज्ञ करने की प्रेरणा, स्वाध्याय व वैदिक परम्पराओं के पालन की शिक्षा दी जाती थी। स्वामी दयानन्द जी को सन् 1863 में अत्यन्त कठिनाई से हस्तलिखित वेद प्राप्त हुए थे जिसका अध्ययन कर उन्होंने अपनी वैदिक मान्यताओं को स्थिर व निश्चित किया था। उनके सामने वेद प्रचार की चुनौती तो थी ही, इसके साथ वेद मन्त्र संहिताओं व वेदों के सभी मंत्रों के सत्यार्थों के प्रकाशन का प्रचार का लक्ष्य भी था। उन्होंने इस काम को हाथ में लिया और यजुर्वेद के संस्कृत व हिन्दी भाष्य से कार्य आरम्भ किया। कुछ समय बाद उन्होंने ऋग्वेद का भाष्य भी आरम्भ कर दिया और दोनों वेदों के भाष्य साथ साथ चलते रहे। ऋग्वेद का भाष्य आरम्भ करने से पूर्व ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका ग्रन्थ का प्रणयन किया। यह अद्भुद ग्रन्थ है। ऋषि दयानन्द के इस ग्रन्थ की प्रशंसा प्रो. मैक्समूलर ने भी की है। वह आरम्भ में ईसाईयत के पक्षपात से ग्रस्त थे परन्तु ऋषि दयानन्द के वेदार्थों को पढ़कर उनके विचारों में कुछ परिवर्तन आ गया था। उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़कर कहा व लिखा था कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से होता है और इसकी समाप्ति ऋषि दयानन्द कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर होती है। यजुर्वेद का भाष्य पूर्ण हो चुका था और इसका साथ साथ मासिक अंकों में प्रकाशन हो रहा था। इसका प्रत्येक अंक प्रो. मैक्समूलर को भी भेजा जाता था। ऋग्वेद का 7वें मण्डल का भाष्य चल रहा था कि महर्षि दयानन्द को जोधपुर में एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विष दे दिया गया जिससे कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई और वेदों के भाष्य का कार्य वहीं पर रुक गया। काश की यह कार्य पूरा हो जाता। इसे विधि का विधान कहें या आर्यों का अभाग्योदय? इससे आर्यजाति सहित मानवजाति की भारी क्षति हुई, ऐसा हम अनुभव करते हैं।
ऋषि दयानन्द जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेद भाष्य, ऋग्वेद का आंशिक भाष्य एवं वेदों पर सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि अन्य जो ग्रन्थ लिखे उनसे भी देश व विश्व से अज्ञानान्धकार दूर हुआ और वेदों का सर्वत्र कुछ प्रकाश हुआ। ऋषि दयानन्द के बाद उनके अनेक अनुयायी वैदिक विद्वानों ने वेदों के भाष्य व वेदार्थ किये हैं। इससे परमात्मा की अमर, नित्य व कल्याण करने वाली वेद वाणी की रक्षा व मानव जाति का कल्याण हुआ है। आज हमारे पास दयानन्दकृत सम्पूर्ण वेदभाष्य सहित अनेक वैदिक विद्वानों के भाष्य हैं जिससे हमें यह लाभ होता है कि हम एक ही मन्त्र के कई विद्वानों के सत्यार्थ पढ़ सकते हैं। यह महर्षि दयानन्द जी की बहुत देन है। यद्यपि ऋषि से पूर्व भी कुछ विद्वानों ने वेदों के भाष्य का कार्य आरम्भ किया था परन्तु सम्भवतः सायण व महीधर को छोड़कर कोई विद्वान किसी एक वेद व चारों वेदों का पूर्ण भाष्य करने में सफल नहीं हुआ। इन दो विद्वानों के मिथ्या अर्थों के कारण भी समाज अन्धविश्वासों व कुरीतियों से ग्रस्त हुआ। आज मानव जाति का सौभाग्य है कि ऋषि दयानन्द ने जो पुरुषार्थ किया उससे वेद पूरे विश्व में लोकप्रिय व महिमा को प्राप्त हुए। आज लगभग पूरे विश्व में विश्व विद्यालयों में वेदाध्ययन की सुविधा है। विश्व में कुछ लोग वेदाध्ययन करते भी हैं। वेद सब सत्य विद्याओ का पुस्तक है। अभी वेदों पर बहुत कार्य किया जाना है। महर्षि दयानन्द के पास अवकाश नहीं था कि वह एक एक वेद मन्त्र के अनेक विस्तृत अर्थ करें। यदि उन्हें अवसर मिलता तो वह अधिकांश वेदमंत्रों के विज्ञानपरक अर्थ भी कर सकते थे। इससे मानवजाति का बहुत कल्याण होता परन्तु कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने षडयन्त्र करके उस महान कार्य को होने से रोक दिया। हमारा सौभाग्य है कि हमें अपने जीवन में दो प्रमुख वेदभाष्यकार पं. विश्वनाथ विद्यालंकार और उनके शिष्य आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी की संगति का अवसर मिला।
स्वामी दयानन्द जी ने वेदों का उद्वार कर देश को आजादी व उन्नति के पथ पर अग्रसर किया था। स्वतन्त्रता प्राप्ति का मन्त्र भी उन्होंने ही सत्यार्थप्रकाश व आर्याभिविनय सहित अपने वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर दिया। वेदों मन्त्रों में भी वह ईश्वर से देश के स्वाधीन व देश में स्वदेशीय राजा होने की प्रार्थना करते हैं। स्वामी जी ने वेद प्रचार व वेदोद्धार के अतिरिक्त अनेक कार्य किये। उन्होंने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि अवैदिक मान्यताओं सहित सामाजिक असमानता व कुरीतियों का प्रबल तर्कों व वेद प्रमाणों से खण्डन किया। उन्होंने नारी जाति सहित शूद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार दिलाया। गुरुकुलीय शिक्षण प्रणाली के लिए आधारभूत सिद्धान्त व विचार भी उन्होंने दिये जिन पर चलकर स्वामी श्रद्धानन्द जी और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि ऋषि भक्तों ने वैदिक संस्कृत व शास्त्रीय शिक्षा के अध्ययन अध्यापन को प्रचारित, पल्लिवित व पुष्पित किया। महर्षि दयानन्द ने ही हमें ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति के सत्य स्वरूप का दिग्दर्शन कराया और हमें ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, दान, सेवा आदि के महत्व व कर्तव्य से परिचित कराने के साथ इनकी विधि आदि का मार्गदर्शन भी किया।
देश आजाद हो, इसकी प्रबल प्रेरणा भी ऋषि दयानन्द ने की थी और उनके अनुयायियों ने सबसे अधिक देश की आजादी में योगदान दिया। स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल आदि देशभक्तों के आजादी दिलाने में किये गये योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। महर्षि ने बौद्धिक व सिद्धान्त स्तर पर छुआछूत, ऊंच-नीच, दलित उत्पीड़न आदि का विरोध किया व इन्हें मानव जाति पर कलंक बताया। महर्षि दयानन्द देश की भौतिक उन्नति के भी पक्षधर थे और इसके लिए जहां वह वेद मंत्रों व अपने ग्रन्थों में प्रेरणा करते हैं वहीं उन्होंने कुछ भारतीय युवाओं को जर्मनी आदि देश भेज कर विज्ञान विषयक कार्य सीखने का प्रयास किया था। ऋषि ने अज्ञान व मिथ्या परम्पराओं को मिटाने के लिए अनेक विधर्मियों वा प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ भी किये। यह भी जान लें कि वेदों के अध्ययन व तदनुसार आचरण से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। मनुष्य जीवन को सार्थक करने के लिए प्रत्येक भारतवासी किंवा विश्व के प्रत्येक नागरिक को सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इस लेख को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य