गुल्लक
बचपन में इक गुल्लक होती थी
मेरी तो पूरी तिजोरी होती थी वही
जितने पैसे भी बचते थे
जमा कर के रख लेती थी
कितना संभाल के रखती थी
मेरी जायदाद होती थी वही
अब पैसा तो जितना चाहूँ मिल जाता है,
मगर वो गुल्लक मुझे अब भी ललचाता है
रखना चाहती हूं, उसमें बचा कर कुछ,
तेरे संग बिताए हंसी-खुशी के पल,
मीठी यादें या वो तेरी प्यारी मासूम हंसी
काश उन सब को अपनी गुल्लक में जमा कर लूं
अब तो मेरी जायदाद है यही….
— सुमन “रूहानी”