“गज़ल”
बह्र- 122 122 122 122, काफ़िया- आने, रदीफ़- लगा है,
यहाँ भी वही शोर आने लगा है
जिसे छोड़ आई सताने लगा है
किधर जा पड़ूँ बंद कमरे बताओ
तराने वहीं कान गाने लगा है॥
सुलाने नयन को न देती निगाहें
खुला है फ़लक आ डराने लगा है॥
बहाने बनाती बहुत मन मनाती
अदा वह दिशा को नचाने लगा है॥
खड़ी है किनारे वही भीड़ अब भी
मगर भाव मंशा चिढ़ाने लगा है॥
छुपाने चली थी कुढ़न आंसुओं की
वही बंध दरिया बहाने लगा है॥
लिखो चाह गौतम गढ़ों नव कहानी
सुना वो शहर छोड़ जाने लगा है॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी