“गज़ल”
बह्र- 2122 2122 2122 2, काफ़िया- अर, रदीफ़- दिया मैंने
क्या लिखा क्योंकर लिखा क्या भर दिया मैंने
कुछ समझ आया नहीं क्या डर दिया मैंने
आज भी लेकर कलम कुछ सोचता हूँ मैं
वो खड़ी जिस द्वार पर क्या घर दिया मैंने।।
हो सके तो माफ़ करना इन गुनाहों को
जब हवा में तीर थी क्यों शर दिया मैंने।।
जो वफा तुमने दिया उसका न हो सका तो
देख लो फिर से ख़ता को दर दिया मैंने।।
जानता हूँ तर सकोगी दर्द की दरिया
इस लिए तो आज फिर जल भर दिया मैने।।
सोख लेता आँसुओं को आज गर दिल से
फिर नहीं पाता तुम्हें जो कर दिया मैंने।।
किस बला का नाम गौतम जानती हो तुम
क्या बताऊँ रात को दिन कर दिया मैंने।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी