कविता
जब मै कोयल सी कूक रही थी पेङों पर,,
तब मनमुग्ध से तुम भावविभोर हो उठे,,
बसाया अपने मन में फूल की तरह…
जब गौरैया सी चिहचिहा रही थी तुम्हारे स्मृति पटल पर,
तब तुम धबराए,,
कही भाग्य न बन जाऊॅ
तुम्हारे आँगन का…
जब मोर पंख सा स्पर्श किया
मेरी रूह ने तुम्हारी रूह को
तब बंध गये थे तुम,
व्यवस्ताओं के हजार बन्धनों में…
तब बना लिया खुद को तुमने पपीहा,
ओस की बूॅदों के लिए भटकते रहे ताउम्र,
क्योकि तब सूखे आसमान में
कल्पनाओं का प्रफुल्लित होना ढल चुका था,,,,
किसी ढलती शाम की तरह…
–“नीरू”निराली