मैं दीपक हूँ
मैं कवि नहीं हूँ
और नाहीं कोई कविता करना जानता हूँ
मैं दीपक हूँ
इसीलिए सिर्फ जलना जानता हूँ |
वैसे मैं बना ही हूँ
जलने के लिए…
नहीं तो मेरे पास भी हैं
कागज की बनी डिग्रियां
मैं भी बन सकता था
डाक्टर, मास्टर, वकील
कुल मिलाकर कुछ भी
परन्तु नियति को यह मंजूर नहीं था |
मान लीजिए
मैं बन जाता खाकी वाला
तो सौ-पचास रुपये में बेच देता सारा ईमान
और अगर खादी वाला बन जाता
तो पूरा का पूरा देश ही चट कर जाता
लाख-लाख शुक्रगुज़ार हूँ
ऊपर वाले का
कि मैं बना नहीं डाक्टर, मास्टर या वकील
डाक्टर बन जाता तो
लूट लेता गरीबों को झूठीं-सच्ची बीमारियों का डर दिखा-दिखा कर
मास्टर बन जाता तो
सरकारी विद्यालय को बना देता बैडरूम
और कर देता मौनिहालों का भविष्य खराब…
वकील नहीं बना बहुत अच्छा हुआ
भाई-भाई में चलवा देता लाठी-डंडे…
मैं बन गया दीपक
इसीलिए बस जल रहा हूँ
किसके लिए जल रहा हूँ
देश, समाज, धर्म या स्वयं के लिए
यह तो स्वयं मुझे भी नहीं पता
और आज तक किसी ने बताया भी नहीं
मैं दीपक हूँ
जलना मेरा काम है
इसके सिवाय मुझे कुछ आता भी नहीं…