हे गौ माता! मैं तेरी सेवा, अन्नोत्पत्ति और गोदुग्ध के लिए तुझे पालता हूं
ओ३म्
आर्यजगत् के वेदों के उच्च कोटि के विद्वान आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार ने ‘यजुर्वेद ज्योति’ नाम से यजुर्वेद के चुने हुए 200 मन्त्रों की बहुत ही सरस एवं भावपूर्ण व्याख्या की है जिसका प्रकाशन वैदिक ग्रन्थों के प्रकाशक ‘श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य न्यास, हिण्डोन सिटी’ द्वारा किया गया है। 40 अध्याय तथा कुल 1975 मन्त्रों वाले यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के प्रथम मन्त्र में गोमाता की स्तुति व प्रार्थना का वर्णन है। मन्त्र निम्न हैः
ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशंसो धु्रवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।
इस मन्त्र की व्याख्या में आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी कहते हैं ‘हे गौमाता! मैं तुझे पालता हूं तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अतः तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूं। तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे। इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूं। तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूं।
हे गौओ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूं। दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुंचायें। राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएं पाली जाएं, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को वह उचित मूल्य पर दी जायें। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र-रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएं प्राप्त करायी जानी चाहिएं।
हे गौओ! तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने (हत्या न करने) योग्य हो। राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएं मारी–काटी न जाएं, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएं। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दांत मांस चबाने योग्य हैं, न आंतें मांस पचाने योग्य हैं। हे गौओ! तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो। तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावें। पाप प्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारे स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकूं, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।
हे परमेश्वर! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन्! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।
मन्त्र में जिन पदों वा शब्दों का प्रयोग हुआ है उनके अर्थ अर्थात् पदार्थ भी जान लेते हैं। हे गौ माता! मैं (इषे त्वा) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूं, (अर्ज्जे त्वा) बल-प्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूं। हे गौओ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। (देवः सविता) दाता परमेश्वर व राजा (श्रेष्ठतमाय कर्मणे) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करें। (अघ्न्याः) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम्) वृद्धि को प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। (इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए (भागं) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, (अनमीवाः) नीरोग तथा (अयक्ष्माः) राजयक्ष्मा आदि भयंकर रोगों से रहित होवो। (स्तेनः) चोर (वः मा ईशत) तुम्हारा स्वामी न बने, (मा अघशंसः) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ) इस मुझ गोपालक के पास (धु्रवाः) स्थिर और (बह्वीः) बहुत-सी (स्यात) होवो। हे परमेश्वर व राजन्! आप (यजमानस्य) यजमान के (पशून्) पशुओं की (पाहि) रक्षा करो।
वेद के उपर्युक्त मन्त्र में मनुष्यों को गोपालन की आज्ञा दी गई है। सभी प्रकार के अन्न, ओषधियों व फल आदि पदार्थों में गौ से मिलने वाले गोदुग्ध, गोबर व गोमूत्र का विशेष महत्व है। गोसेवा वा गोपालन से मनुष्य जो पुण्य अर्जित करता है उससे उसके वर्तमान व परजन्म दोनों सुधरते हैं। मनुष्य स्वस्थ, निरोग, बलवान, बुद्धिमान व विद्याग्रहण करने में सक्षम होता है। उसकी आयु वृद्धि होती है जिससे उसका जीवन सुखमय होता है। विद्वानों ने धन व सम्पत्ति से भी अधिक ज्ञान को महत्वपूर्ण माना है। गोदुग्ध पान करने से मनुष्य को मेधा बुद्धि की प्राप्ति होती है। इससे मनुष्य शरीर बलिष्ठ होते हैं और उनके यहां उत्तम सन्तानें जन्म लेती हैं। गोदुग्ध से जो घृत बनता है वह भी यज्ञ आदि के द्वारा वायुशोधक, वर्षा-जल शोधक, कृषि उत्पादों सहित वन्य ओषधियों को भी पुष्ट व गुणकारी बनाता है। ऋषि दयानन्द ने ‘गोकरुणानिधि’ नामक पुस्तक लिखी है। इसमें गौ से होने वाले आर्थिक लाभों को गणित की रीति से बताया है। गौ के महत्व पर आर्यसमाज के विद्वान व राजनेता पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी ने एक पुस्तक ‘गौ हत्या राष्ट्र हत्या’ लिखी है। यह पुस्तक भी अध्ययन हेतु उत्तम ग्रन्थ है। आर्य वैदिक संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती और डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने भी गौ के महत्व पर पुस्तकें लिखी हैं जिसमें गौ विषयक महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। जिस राष्ट्र में गोहत्या होती है वहां ईश्वर की यथार्थ भक्ति व यज्ञ आदि के न होने से मनुष्यों को उत्तम सुख प्राप्त नहीं होते और उसके सभी नागरिक व प्रजा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित होकर अनेक जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं। इस दृष्टि से भी गोरक्षा का महत्व है। आईये! गोरक्षा व गोपालन सहित गोदुग्ध पान करने का व्रत लें और अपना इहलोक व परलोक दोनों सुधारें। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य