ग़ज़ल : राज़दार
मेरे अरमानों को क्यों किया तार-तार,
इनकी फरमाइश की थी तो बार-बार।
जब भी देखा हुजूम तेरे फरिस्तों का,
याद कर तुझको सजदे किये हजार बार।
औरों की महफिल में गिने गये रकीबों में,
तेरी ही महफिल में हमेशा हुए शर्मसार।
ये दुनिया कब किसका करती है इंसाफ,
इस दुनिया की सौगंध क्यों देते हो हर बार।
सुना है शहादत कर रहे हैं गैरों में हमारी,
जिन्हें बनाया था हमनें अपना राज़दार।
मुद्दत लग जाते हैं जिस शै को बनाने में ,
उनको मिटाने की जुर्रत बस एक बार।
केहकसाओं ने कर दी नज्र सारी रात चाँद को,
‘अयुज’ क्या दिनकर भी बलि दिया कोई वार।