कविता

“चॉद और धरा “

चन्द्रगृहण पर कुछ पँक्तियॉ…..

चॉद कहे धरा से थोड़ा सा तो खिसक ले ,
कर लूँ दीदार मैं भी अपने चमन का,
अब कुछ घुटन सी होने लगी है मन पर,
कहीं मैं होकर निढाल गिर ना जाऊँ ज़मीपर ।

धरा कहे ज़रा ठहर तो,
इतनी भी क्या है जल्दी,
कुछ समय तो सबृ कर,
मन तेरा है बड़ा चंचल ।

कहे चॉद मेरे बिना तेरा जीवन है अधूरा,
कल्पना कर ! ना रहा मैं तो क्या होगा ?
सूर्य के ताप से जल जायेगा तेरा अस्तित्व ,
ना कर हठ ! अब ज़रा सा ही खिसक ले ।

धरा कहे लो मान गई मैं तुम्हारा कहना,
अब ना करना कोई ग़लत काम ,
जिसका पड़ेगा चुकाना बहुत बड़ा दाम,
मैं मॉ हूँ रखना होता है सबका ध्यान ।

चॉद कहे मॉ तो मॉ होती है देती सबको क्षमादान,
यूँ पीछे से ही सही पर देती सबको जीवनदान ,
मैं रहूँगा ऋणी तुम्हारा जीवनभर,
जो आज तुमने मुझे दिया जीवनदान।

धरा कहे चल पगले अब क्या रुलायेगा ?
आजा अब काफ़ी हुई तेरी सजा,
ना जाने क्यों करता है शरारतें,
चॉद कहे धरा से थोड़ा सा ………………।

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक