हम ईश्वर के गुणों का साक्षात्कार कर उससे लाभ उठा सकते हैं
ओ३म्
हम अपने परिवार, मित्र मण्डली तथा पड़ोसी आदि अनेक लोगों को जानते हैं। हम से कोई पूछे कि क्या अमुक व्यक्ति को आप जानते हैं तो हमारा उत्तर होता है कि हां, हम उसे जानते हैं। हमारा यह उत्तर पूर्ण सत्य नहीं होता। हम न तो किसी मनुष्य के सभी गुणों को जानते हैं और न अवगुणों को ही जानते हैं। मात्र नाम, आकृति व कुछ थोड़े गुण व अवगुणों को ही जानकर हम यह कह देते हैं कि हम उसे जानते हैं। यदि ईश्वर के बारे में विचार करें तो सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, उपनिषद, दर्शन व वेद का स्वाध्याय किया हुआ मनुष्य ईश्वर को प्रायः पूर्ण रूप में जानता है। ईश्वर का यह जानना ही हमें ईश्वर का साक्षात्कार प्रतीत होता है। ईश्वर भौतिक पदार्थों से निर्मित न होकर एक चेतन व अभौतिक पदार्थ है। हम आंखों से केवल स्थूल भौतिक पदार्थों को ही देख सकते हैं। सूक्ष्म भौतिक पदार्थों को हम नहीं देख पाते हैं। सभी भौतिक पदार्थ परमाणु व अणु रूप होते हैं। वायु में अनेक प्रकार की गैसें होती हैं जो अणु व परमाणु रूप होती हैं। यह गैसें हमें आंखों से दिखाई नहीं देती परन्तु वैज्ञानिक उपकरणों व विज्ञान की पुस्तकों के अध्ययन व उससे अर्जित ज्ञान के आधार पर वायु में विद्यमान गैसों के आंखों से दिखाई न देने पर भी हम यह स्वीकार करते हैं कि वायु में आक्सीजन, नाइट्रोजन एवं कार्बन डाई आक्साइड सहित अनेक प्रकार की गैंसे हैं। ईश्वर अभौतिक एवं सर्वातिसूक्ष्म होने से आंखों से देखा नहीं जा सकता। यह बात तो हमारे सभी विज्ञ एवं वैज्ञानिक बन्धुओं को भी स्वीकार करनी चाहिये। परमात्मा की अनुभूति करनी है तो वह वेद एवं वेदों पर आधारित पुस्तकों को पढ़कर और इसके साथ सृष्टि में विद्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथिवी एवं पृथिवीस्थ अपौरुषेय पदार्थों व उनमें कार्यरत नियमों को देख कर की जा सकती है। मानव शरीर के बाहर भीतर के रचना विशेष गुणों को देखकर भी ईश्वर का ज्ञान व उसका दर्शन बुद्धि व ज्ञान चक्षुओं से किया जा सकता है।
हम सृष्टि के अपौरुषेय और मनुष्यों द्वारा बनाये गये पौरुषेय अनेकानेक पदार्थों को अपने दैनन्दिन जीवन में देखते व उनका उपयोग करते हैं। वर्षों तक उनका उपयोग करने पर भी हमें उनकी आन्तरिक बनावट व कार्य शैली का ज्ञान नहीं होता। हमारा टीवी, घड़ी, कमप्यूटर, स्कूटर, मोटर साइकिल व कार आदि में कुछ मामूली सी भी खराबी आ जाये तो हमें मैकेनिक की शरण लेनी पड़ती है। मैकेनिक हमारे इन यंत्रों की खराबियों को अधिक जानता है। हमें वर्षों तक उपयोग करने पर भी अपनी वस्तुओं की जो बातें विदित नहीं होतीं वह हमारा मैकेनिक कुछ क्षणों में ही जान लेता है और उसको ठीक भी कर देता है। इससे हमें ज्ञात होता है कि जिन वस्तुओं के हम सम्पर्क में रहते हैं और आंखों से देखकर जानते भी हैं उन्हें हम एक सीमा तक ही जानते हैं, पूर्ण रूप से नहीं जानते। उसे पूर्णता से जानना हमारे वश में नहीं होता। इस दृष्टि से विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हमसे अधिक मैकेनिक व उनसे भी अधिक उस वस्तु के आविष्कारक, वैज्ञानिक व इंजीनियर उसे जानते हैं। अतः परमात्मा के विषय में हठ न करके हमें उसे समझने का प्रयास करना चाहिये। परमात्मा के गुण सभी अपौरुषेय रचनाओं में दृष्टिगोचर वा अनुभव होते हैं। जल में शीतलता है, यह द्रव है, गर्मी के सम्पर्क में आने पर भाप बनता जाता है और आकाश में जाकर स्थित होता है। फिर जब वर्षा की स्थितियां बनती हैं तो यह वर्षा के रूप में हमें प्राप्त हो जाता है। यह जो जड़ पदार्थों में गुण व नियम हैं वह कब व कैसे इनमें आयें व उत्पन्न किये गये? जल अपने आप तो बना नहीं होगा। विज्ञान व वैज्ञानिकों की भांति इसे भी किसी ज्ञानवान सत्ता ने मनुष्यों व अन्य प्राणियों के प्रयोजन को पूरा करने के लिए इसकी रचना की है, ऐसा हमें अनुभव होता है और यही वास्तविकता भी है। प्रकृति में जल का निर्माण अकारण नहीं सकारण है। ऐसा ही प्रकृति में उपलब्ध अन्य पदार्थों के बारे में भी कह सकते हैं। मनुष्य आदि प्राणियों के लिए सकारण जल का रचयिता केवल ईश्वर ही विदित होता है। उसका चेतन, ज्ञानवान्, निराकार व इंद्रियों से अगोचर, व्यापक, अनादि व अनन्त आदि गुणों से युक्त होना तर्क व विवेक से निश्चित होता है।
गुण व गुणी के सिद्धान्त से भी ईश्वर की सिद्धि होती है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि गुणों का दर्शन करते हैं गुणी का नहीं। इसी प्रकार से रचना विशेष व उसमें निहित व कार्यरत गुणों को देखकर रचयिता का ज्ञान वा साक्षात् होता है। विशिष्ट बनावट के फूल को हम देखते हैं। इसमें जो रचना है वह अन्य पुष्पों से भिन्न होती है, सबके रंग व आकृति आदि में भी भिन्नता होती है, सबकी अलग अलग सुगन्ध होती है, सबके बीज, टहनियां व पत्ते भी अलग अलग प्रकार के होते हैं। एक ही भूमि में एक दूसरे के निकट अनेक प्रकार के पुष्प के पौधे उग जाते हैं और रंग-रूप में भिन्न होते। सामान्य बुद्धि से विचार करने पर यह अन्तर स्पष्ट नहीं होता। अनेक स्थानों पर तो यह बिना मनुष्यों के लगाये ही उत्पन्न हो जाते हैं। ईश्वर की व्यवस्था कमाल की व्यवस्था है। इसीलिए हमारे गीतकारों ने लिखा ‘तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं, दृष्टि किसी की तू आया नहीं’। ऋषि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि परमात्मा ने पुष्पों को वायु की दुर्गन्ध निवृत्ति व उसमें सुगन्ध बिखेर कर वायु की अशुद्धि को दूर करने के लिए इन्हें रचा है, यही फूलों का मुख्य प्रयोजन प्रतीत होता है। भौरें भी फूलों पर मण्डराते हैं। मधुमक्खियां इन फूलों से मधु को एकत्रित करती हैं और वह मधु बाद में हमें प्राप्त होता है। इससे भी हम लाभान्वित होते हैं। यह सब कार्य एक गुणी जो कि चेतन व ज्ञानवान् तथा सर्वशक्तिमान है, उसी के द्वारा होना सम्भव है। वह सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर है तभी उसी सेयह सब सम्भव हो रहा है। यदि ईश्वर न होता तो सृष्टि की किसी भी अपौरुषेय रचना का अस्तित्व न होता। अतः हमें सृष्टि के पदार्थों व उनके गुणों पर ध्यान देना चाहिये और विचार करना चाहिये कि यह गुण व पदार्थ कैसे, क्यों व किन प्रयोजनों के लिए सृष्टिकर्ता ने उत्पन्न किये हैं। उन्हें जानकर हमें उनका यथावत् उपयोग लेना चाहिये।
इस लेख में हमारा प्रयोजन मात्र यह है कि हम यह समझे कि हम किसी आकृति वाली वस्तु जो हमारी आंखों से दिखाई देती है, उसे पूर्णता से नहीं जान पाते। हम केवल उसका ऊपरी आकार देख पाते हैं जो कि उसका सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होता। उस वस्तु की बाह्य आकृति ही हमें दिखाई देती है परन्तु उसके अन्दर जितने गुण भरे हैंं उन्हें तो उस विषय के विशेषज्ञ ही जानते व उसका उपयोग कर पाते हैं। जब हम बाह्य वस्तु की आकृति को ही उसका साक्षात् दर्शन मान सकते हैं तो हमें संसार में जो अपौरूषेय रचनायें दिखाई देती हैं उनके भीतर विद्यमान दैवीय सत्ता जो मनुष्यादि प्राणियों के सुख व कल्याण के लिए उन पदार्थों का निर्माण करती है उसे भी जानने व समझने का प्रयत्न करना चाहिये। वही ईश्वर है और उसके गुण वेद, उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों में मिलते ही हैं, इसके साथ ऋषि दयानन्द ने वेद मन्त्रों के भाष्य सहित अपने प्रायः सभी ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि आदि सर्वत्र ईश्वर व उसके गुणों, कर्मों आदि की चर्चा की है। सत्यार्थप्रकाश के पहले समुल्लास में ईश्वर के निज नाम ओ३म् सहित उसके सौ से अधिक गुण व सम्बन्ध वाचक नामों की चर्चा की गई है। हम यदि इन पुस्तकों को पढ़ेगे तो हमें ईश्वर के स्वरूप का सामान्य नहीं अपितु उच्च स्तर का परिचय मिलेगा। हम ईश्वर के अस्तित्व व स्वरूप को अच्छी प्रकार से जान सकेंगे। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को भी जान सकेंगे। स्वाध्याय व चिन्तन से हमें मनुष्य जीवन व आत्मा के उद्देश्य व लक्ष्य का पता भी चलेगा। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम, आर्योद्देश्यरत्नमाला, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्याविभिवनय आदि ग्रन्थों में ईश्वर के अधिकांश गुणों पर प्रकाश डाला है। इन गुणों को जानकर, अनेक बार इनको पढ़कर कर व दोहराने से हम ईश्वर को भली प्रकार से जान सकते हैंं और गहन दार्शनिक व साधना की दृष्टि से नहीं अपितु सामान्य रूप से तो हम कह ही सकते हैं कि हमने ईश्वर का साक्षात्कार उसके गुणों को जानकर व समझकर कर लिया है। इसके बाद ईश्वर की उपासना की आवश्यकता होती है। उसे भी हम योग व ऋषि दयानन्द की पद्धति से अभ्यास करके व यम नियमों का पालन करते हुए कर सकते हैं। इससे हम अच्छे उपासक व साधक बन सकते हैं और निरन्तर साधना करते हुए व साधना में अधिकाधिक प्रगति कर ईश्वर साक्षात्कार को और अधिक व्यापक व समृद्ध कर सकते हैं। अतः हमें स्वाध्याय द्वारा ईश्वर के गुणों व उसके कार्यों का अध्ययन करते रहना चाहिये। इससे हमें आध्यात्मिक दृष्टि व सामाजिक दृष्टि से अनेकानेक लाभ होगें। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य