राजनीति

लेख– सुशासन बाबू के राज में सुशासन है, कहाँ?

सबके के अपने दावे होते हैं। फ़िर वह केंद्र की सरकार हो, या राज्य की रहनुमाई व्यवस्था। आज के वक्त में राजनीति में कोई सुशासन पुरुष बन बैठा है, तो कोई विकास पुरूष। पर जब कोई ज़मीनी हक़ीक़त सामने आती है। ऐसे में फिर सभी वादों और दावों की कलई खुलनी शुरू हो जाती है। बिहार में सुशासन का पर्याय नीतीश कुमार बन बैठे हैं। पर आज के हालात क्या कहानी बयां करती है। यह अपने-आप बयां हो रहीं है, क्योंकि बिहार की हवा के फिजाओं में अपराध बह रहा है। विषय सोचनीय तो तब हो जाता है। जब यह पता चलता है कि सूबे के वर्तमान मुख्यमंत्री की अंतरात्मा भ्रष्टाचार के विषय पर तो जाग जाती है। पर राज्य में बढ़ते अपराध पर उनकी अंतरात्मा अब क्यों मौन पड़ी है। ऐसे में मामूल तो यहीं पड़ता है, शायद राजनीति का खेल भी बड़ा अज़ीब है। यहां दिखावा कुछ और पर धरातल पर होता कुछ ओर है। सरकार के सुशासन व्यवस्था की पोल तो पब्लिक अफेयर सेंटर (पीएसी) द्वारा जारी सार्वजनिक मामलों के सूचकांक-2018 में खुल जाती है। जब इस रिपोर्ट में देश के 18 बड़े राज्यों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बिहार को नीचे के तीन पायदानों में से एक मिलता है।

ऐसे में यह सच है, लालू यादव की लालटेन के उजाले में बिहार भ्रष्टाचार के अंधकार में आकंठ डूब गया था। पर स्थितियां तो आज भी बदली नहीं बिहार के फिजाओं में। सिर्फ़ बदल गया है, तो राजनीति का झंडा, जनता को आज भी सुविधाओं के लिए दरबदर भटकना पड़ रहा है। ऐसे में तो लगता सिर्फ़ इतना ही है, आज के दौर में राजनीति में जितनी भी बातें नीति और धर्म की होती हैं। वह सब दिखावे से अधिक मायने रखती नहीं। वरना सुशासन का दम्भ भरने वाले नीतीश कुमार के राज्य में सामाजिक आबोहवा दूषित ही नहीं रहती। वह भी उस दरमियां जब पिछले एक वर्ष से उसके साथ गले में हाथ डालकर वही पार्टी चल रहीं। जो केंद्रीय सत्ता को स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठाएं घूम रहीं। लगभग एक वर्ष से अधिक का समय हो गया है, दोबारा बिहार राज्य में भाजपा और जेडीयू के दोस्ताना को। पर स्थितियां तो देखिए दोनों अज़ीब कशमकश में हैं। सूबे में अपने वजूद को लेकर।

ऐसे में ये भूल गए हैं। शायद सत्ता का चुनाव इसलिए होता है, कि अवाम को स्वच्छ और स्वस्थ समाजिक वातावरण मिले। लेकिन फ़िक्र कहाँ इन दलों को इसकी। तभी तो महिलाओं के खिलाफ अपराध,बलात्कार और भ्रष्टाचार के मामले में बढोतरी लगातार हो रही है सूबे में, साथ ही सांप्रदायिक घटनाएं भी बढ़ रहीं है। लेकिन इससे छुटकारे को लेकर सुशासन बाबू के पास क्या ईलाज है। कभी इसका ज़िक्र नहीं करते। आज के दौर में सत्ता ही सब कुछ बन गई है, तभी तो कभी उसी के साथ महागठबंधन होता है। जिसे जंगलराज के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता रहा है। तो कभी पुनः उसी की गोदी में बैठा जाता है, जिसे देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा माना जाता है। यह हुई बात सत्तालोलुप होने की। यहां तक भी चल सकता है। लेकिन राजनीति का सकल उद्देश्य क्या होता है। शायद उसे बिसार दिया गया है। वरना उस बिहार राज्य को जिसे जंगलराज से मुक्ति का राजनीतिक सर्टिफिकेट दे दिया गया है। उसे एक वर्ष के भीतर ही सात जगहों पर दंगों से पीड़ित नहीं होना पड़ता। आज के दौर में सबसे बड़ी कमजोरी हमारी व्यवस्था को इस बात की भी लग गई है, कि वह सर्टिफिकेट भी ख़ुद देने लग गई है। ऐसे में लगता तो यही है, अगर थोड़ा सा किसी अन्य बातों का दवाब न हो तो ये सियासत के पुजारी मत देने का काम भी जनता से हथिया कर उसे लोकतंत्र में निहत्था कर देते। ऐसे में इन सब का कुछ हद तक जिम्मेदार हमारा समाज भी है, क्योंकि आज समाज की स्थिति भी ऐसी हो चली है, जैसे कुएं में ही भांग पड़ी हो। तो अवाम को उनका खुराक तो मिल जाएगा समय आने पर। फ़िर वह धार्मिक अथवा जातीय होगा। यह कालचक्र निर्धारित करेगा। आज के दौर में सत्ता प्राप्त करना मठाधीशों के बाएं हाथ का खेल हो गया है, इसलिए विकास और सामाजिक उत्थान और सुरक्षा आदि की बातें सियासतदानों ने भी त्याग दी है।

वर्तमान दौर में बिहार का शासन सुशासन के नाम पर गतिशील है, लेकिन अंदर की बात तो यह है। जिससे भयावह और शर्मनाक स्थिति ओर कुछ हो भी नहीं सकती, क्योंकि जो रक्षक था, अब भक्षक की स्थिति में आ पहुँचा है। सुशासन बाबू की नगरी में जो बालिका गृह बेघर, बेसहारा बच्चियों का ठिकाना था, वह नरक से कम नहीं बचा है। मुजफ्फरपुर में सरकारी संरक्षण में चल रही एक बालिका गृह में 29 बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो गया। तो ऐसे में सवाल तो बहुतेरे ख़ड़े होंगे। क्या सरकारी संरक्षण में भी बच्चियां महफूज नहीं? यह कैसे हो सकता है, कि लंबे समय से बालिका गृह बच्चियों के लिए नरक बनता रहा, और संस्था के शासन-प्रशासन के कानों तक बच्चियों की चीख तक नहीं पहुँची? जब बालिका गृह की बेहतर चाक-चौबंद होती है। फ़िर बिना सफेदपोश, सुरक्षा महकमें और अफसरों के सांठगांठ के ऐसे घिनौने कृत्य हो ही नहीं सकते। इन सभी तथ्यों का विश्लेषण तो यहीं उजागर करता है, कि बिहार में कितने ही दावे जंगलराज के खत्मे का कर लिया जाए। पर व्यवस्था को जो दीमक लगा है। वह दूर नहीं हो पा रहा।

फ़िर उन्हें कौन समझाएं चलिए आपने जंगलराज से मुक्ति दिला दी। वह आपका प्रदेशवासियों पर राजनीतिक उपकार है। यहां राजनीतिक उपकार शब्द भी अलग मायने रखता है, क्योंकि आज के रहनुमा लोग अपने कामों को ऐसे गिनाते हैं, जैसे उन्होंने बहुत बड़ा काम कर दिया हो। भई जब सत्ता आप को सौंपी है तो काम भी आपको ही करना होगा शायद राजनीतिक संस्कृति तो यही कहती है। पर यह सब हमारे लोकतंत्र के प्रहरी भूल चुके हैं। कि जो हालत प्रदेश की बनकर उभर रहीं उसमें कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ गई है। इसके साथ सरकारी दावे तो एक के बाद एक ऐसे फुस हो रहें, जैसे दिवाली में ख़रीदे पटाख़े सीलन की वजह से फटने के बजाय धीरे से फुस की आवाज़ ही दे पाते हैं। दुर्भाग्य देखिए अभी बीते दिनों 27 जुलाई को ही भाजपा और नीतीश के गठबंधन को एक वर्ष पूरे हुए हैं। तो ऐसे में ये करते तो विकास का गुणगान पर इन दिनों बच्चियों के साथ रेप की घटना को लेकर सरकार आरोपों से घिरी हुई है। यह घटना काफ़ी संगीन तब हो गई जब सत्तासीन पार्टी के एकाध नाम इसमें शामिल होने लगे। अब सीबीआई जांच की सिफारिश भी हो गई है, लेकिन सिफारिश और जांच से आज़तक हुआ क्या है। इससे सभी चिरपरिचित हैं। तो अब भी अगर सृजन घोटाले के बाद शौचालय घोटाला सामने आ रहा है, और बालिका गृह में बच्चियां तक महफूज नहीं। तो सत्ता के लिए सीटों और आने वाले समय में गठबंधन किससे करना है। यह सब मोह छोड़िए। सत्ता तो आज के दौर में हाथ का मैल समझ लीजिए। राजनीति के राजधर्म का पालन होगा तो सत्ता की कुर्सी ख़ुद चलकर आएगी, क्योंकि देश तो वही है न जहां जनता को धर्म और मज़हब में आप उलझा देते हैं, तो भी मत दे देती है। तो कभी विकास और सामाजिक सुरक्षा देकर तो देखिए, क्यों आएं दिन सीटों और सत्ता की ही सोचते रहते हैं! बस इतना ही कह सकते हैं, बाक़ी राजनीति पर छोड़ देते हैं…

 

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896