“छंद, रोला मुक्तक”
पहली-पहली रात, निकट बैठे जब साजन।
घूँघट था अंजान, नैन का कोरा आँजन।
वाणी बहकी जाय, होठ बेचैन हो गए-
मिली पास को आस, पलंग बिराजे राजन।।-1
खूब हुई बरसात, छमा छम बूँदा बाँदी
छलक गए तालाब, लहर बिछा गई चाँदी
सावन झूला मोर, झुलाने आए सैंया
ननदी करें किलोल, सिखाएं सासू दादी।।-2
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी