ब्रह्माण्ड के सभी सौर मण्डलों में असंख्य पृथिव्यां हैं जहां सबमें हमारे समान मनुष्यादि प्राणि हैं
ओ३म्
हमारी पृथिवी हमारे सूर्य का एक ग्रह है। इस पृथिवी ग्रह पर मनुष्यादि अनेक प्राणी विद्यमान है। हमारी यह पृथिवी व समस्त ब्रह्माण्ड वैदिक काल गणना के अनुसार 1.96 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया है। पृथिवी पर मानव सृष्टि की उत्पत्ति से लगभग 2.6 करोड़ वर्ष पूर्व का काल सृष्टि की रचना में लगा है। उससे पूर्व सृष्टि की प्रलय अवस्था थी जिसकी अवधि 4.32 अरब वर्ष होती है। ईश्वर अनन्त है और उसकी बनाई हुई यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड भी अनन्त व असीमित है। इस समस्त सृष्टि में हमारे सौर मण्डल जैसे अनन्त सौर मण्डल हैं जिसमें हमारे सौर मण्डल के समान ग्रह व उपग्रह भी हैं। ईश्वर का कोई भी कार्य व रचना बिना प्रयोजन के नहीं होती। इसका अर्थ है कि ईश्वर ने जो यह विशाल ब्रह्माण्ड बनाया है उसका प्रयोजन अवश्य है। वेद ईश्वर का ज्ञान है। वेदों का अध्ययन करने पर इस सृष्टि रचना का उद्देश्य पूर्व सृष्टि की प्रलय के समय जो समस्त जीव ब्रह्माण्ड में थे, उनको उनके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है। यदि जीवों की संख्या सीमित होती तो ईश्वर को इस विशाल अनन्त ब्रह्माण्ड को बनाने की आवश्यकता नहीं थी। यह अनन्त ब्रह्माण्ड यह बताता है कि ईश्वर भी अनादि व अनन्त है और इसके साथ ही संसार में जीवों की संख्या भी अनन्त है। यहीं कारण है कि ईश्वर ने जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के सुख व दुःखादि फल देने के लिए इस अनन्त ब्रह्माण्ड की रचना की है। यह सृष्टि रचना पहली बार नहीं हुई अपितु अनादि काल में कुछ सौ या हजार बार नहीं अपितु असंख्य व अनन्त बार ईश्वर से सृष्टि की रचना हुई है। यह भी तथ्य है कि पूर्व की सभी सृष्टियों में हम अर्थात् हमारी आत्मायें भी इन सभी सृष्टियों में मनुष्य अथवा अन्य किसी न किसी योनि में विद्यमान रही हैं। इसका कारण हमारी आत्मा का अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी और अमर होना है। भविष्य में भी सृष्टि और प्रलय तथा हमारा जन्म व मृत्यृ का चक्र विद्यमान रहेगा और हम बार-बार जन्म लेते रहेंगे और जिस योनि में जन्म लेंगे उस योनि की औसत आयु के बाद हमारी मृत्यु हुआ करेगी।
इस बृहद असीमित ब्रह्माण्ड में असंख्य सूर्य और पृथिव्यां होने के कारण उन पर हमारी तरह के मनुष्यादि प्राणियों का जीवन होना सम्भव है। यदि परमात्मा को वहां प्राणियों को उत्पन्न न करना होता तो वह इतने अधिक लोक लोकान्तर क्यां बनाता? एक मनुष्य को एक निवास में रहना होता है तो वह एक ही निवास बनाता है। अपने परिवार के अन्य लोगों की आवश्यकता के अनुसार एक से अधिक भी बना सकता है। परमात्मा ने एक दो सूर्य नहीं अनन्त सूर्य बनायें हैं। यह सब उसने जीवों के लिए बनाये हैं। ईश्वर सर्वज्ञ है। उसे इस सृष्टि से पूर्व भी ऐसी ही सृष्टियों के बनाने का ज्ञान व अनुभव है। उन्हीं के अनुसार उसने इस ब्रह्माण्ड की रचना की है। इस विशाल संसार वा जगत् को बनाने का कारण उन सब पृथिव्यों पर जीवात्माओं को उनके पाप-पुण्यों के अनुसार जन्म देना है। मोक्ष के प्रकरण में हमें पढ़ने को मिलता है कि जीवात्मा मोक्ष में अव्याहृत गति से एक लोक से दूसरे लोक में जाना चाहे तो जा सकता है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में भी यह सम्भव है कि एक पृथिवी लोक की आत्मायें अपने कर्मों के अनुसार दूसरे लोक में जन्म लेती हों। ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक है अतः उसे एक जीवात्मा को एक लोक से दूसरे लोक में ले जाने में कोई कठिनाई नहीं आती, ऐसा समझा जा सकता है। इससे यह ज्ञात होता है कि अन्य सभी सूर्य लोकों के पृथिवी सदृश ग्रहों पर भी मनुष्य आदि प्राणियों का जीवन है और वहां भी हमारी पृथिवी की तरह लाखों, करोड़ों व अरबों की संख्या में जीवात्मायें मनुष्यादि अनेक योनियों में निवास करती हैं।
ईश्वर इस सृष्टि का निर्माण अपनी अनादि प्रजा जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के पाप व पुण्य कर्मों का फल देने के लिए करता है। इससे पूर्वजन्म भी सिद्ध हो जाता है। पूर्वजन्म होने के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि जीवात्मा और परमात्मा अनादि सत्तायें हैं और दोनों ही अविनाशी व अमर हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि हमारा वर्तमान में जन्म हुआ है तो निश्चय ही इस जन्म से पूर्व भी हमारे जन्म हुए होंगे। यदि नहीं हुए होंगे तो हम इस ब्रह्माण्ड में निठल्ले पड़े रहे होंगे। हम यह तो मानते ही हैं कि हम स्वयं अपनी इच्छा से जन्म नहीं ले सकते, हमें जन्म देने की सामर्थ्य तो केवल मात्र ईश्वर में ही है। यदि पूर्व जन्म न माने तो ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता पर आरोप लगेगा कि उसने हमें जन्म न देकर अन्याय किया। वह सर्वशक्तिमान नहीं है। परन्तु यह आरोप निराधार है क्योंकि जन्म-मृत्यु का चक्र बिना किसी अवरोध के चल रहा है। इस विशाल ब्रह्माण्ड में नित्य प्रति मनुष्यादि प्राणियों को जन्म लेता व मरता देखकर हमें जीवों की मृत्यु के कुछ ही दिनों वा महीनों में जन्म होना स्वीकार करना पड़ता है। इससे सभी लोक लोकान्तरों में, जहां-जहां मनुष्यादि प्राणी हैं, वहां पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी स्वीकार करना उचित प्रतीत होता है।
प्रलय के बाद परमात्मा जब भी किसी पृथिवी पर मनुष्यादि प्राणियों की सृष्टि करता है तो वह अमैथुनी सृष्टि होती है। इसका कारण यह है कि मैथुनी सृष्टि माता-पिता से होती है। माता-पिता न हां तो मनुष्यादि प्राणी केवल ओर केवल अमैथुनी सृष्टि के द्वारा ही उत्पन्न हो सकते हैं। इस पृथिवी पर परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में युवा स्त्री व पुरुषों को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न किया। युवा इसलिए बनाये क्योंकि यदि शिशुओं के रूप में उत्पन्न करता तो उनका पालन पोषण करने के लिए माता-पिता चाहियें थे और यदि वृद्ध उत्पन्न करता तो वह मैथुनी सृष्टि नहीं कर सकते थे। इन मनुष्यों को जो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए थ़े, उन्हें ज्ञान व भाषा की आवश्यकता भी होती है। इसकी पूर्ति अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती। इसके लिए ज्ञानस्वरूप व सर्वज्ञ परमात्मा ही अपने सर्वशक्तिमान व सर्वान्तरयामी स्वरूप से सृष्टि की आदि में उत्पन्न चार ऋषियों को मनुष्यों के प्रलय पर्यन्त व्यवहारों को करने के लिए सभी विषयों का सम्पूर्ण ज्ञान देते हैं। यह वेदज्ञान ही मनुष्यों को ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति सहित उसके सभी कर्तव्य-कर्मों का ज्ञान कराता है। ईश्वर ने ही मनुष्यों के शरीर व सुनने, बोलने व समझने के उपकरण मनुष्य शरीर में बनाये हैं। शरीर के उपकरणों व इन्द्रियों के अनुसार ही परमात्मा ने ज्ञान व भाषा दी है जिसे सभी स्त्री व पुरुष बोल सकें।
विचार करने पर यह भी ज्ञात होता है कि इस ब्रह्माण्ड में जो अनन्त सूर्य व पृथिविव्यां हैं, उन सब में भी इसी प्रक्रिया से परमात्मा ज्ञान देता है। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वार्न्यामी आदि गुणों व स्वरूप वाला है। वह पूरे ब्रह्माण्ड की रचना कर उसका पालन वा व्यवस्था कर रहा है। सारी व्यवस्थायें सुचारू रूप से चल रही हैं। इसका कारण ईश्वर की महानता व उसका सद्गुणों से युक्त होकर धार्मिक स्वभाव वाला दयालु व कृपालु होना है। हमारा सौभाग्य है कि इस सृष्टि में वेद प्रतिपादित ईश्वर जैसी सत्ता विद्यमान है जो हमारे साथ हर पल और हर क्षण सदा-सर्वदा से रहती आयी है और भविष्य में भी एक माता, पिता, आचार्य, मित्र व बन्धु की तरह से रहेगी। हमें जो सुख मिल रहा है वह सब ईश्वर की देन वा कृपा है। हमें जो दुख मिलते हैं वह हमारे पाप कर्मों के कारण मिलते हैं। इसी क्रम में हम यह भी लिख देना उचित समझते हैं कि ब्रह्माण्ड की सभी पृथिवियों पर वेदज्ञान के साथ संस्कृत भाषा का भी अस्तित्व है जिसका कारण ज्ञान व भाषा की मनुष्यों की प्राप्ति सृष्टि के आरम्भ काल में ईश्वर से ही होना है। हमें ईश्वर की अपने प्रयोग व व्यवहार की भाषा भी संस्कृत ही प्रतीत होती है। उसी भाषा में वह सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को ज्ञान उपलब्ध कराता है। मनुष्य देश, काल व परिस्थितयों के अनुसार संस्कृत में विकार कर कुछ बोलियां या भाषायें तो बना सकते हैं परन्तु विकृत भाषाओं के आधार पर संस्कृत जैसी शुद्ध व श्रेष्ठ भाषा नहीं बना सकते। यदि बना सकते तो विश्व के संस्कृत से इतर भाषी लोगों ने अपने देश में संस्कृत जैसी भाषा को उत्पन्न कर लिया होता। इससे ज्ञात होता है कि विश्व के सभी मनुष्य मिलकर भी संस्कृत जैसी श्रेष्ठ भाषा का निर्माण नहीं कर सकते। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट है कि संसार के किसी देश ने अपनी भाषा की उच्चारण व अन्य समस्याओं को आज तक दूर नहीं किया है। अंग्रेजी भाषा में आज भी ‘त’ की ध्वनि नहीं है और अरबी में ‘स’ की ध्वनि नहीं है। इसी कारण वह सप्ताह को हफ्ता बोलते हैं।
परमात्मा ने जिन जहां जिस पृथिवी पर जीवात्माओं को मनुष्य का जन्म दिया है, उनका कर्तव्य है कि वह वेदज्ञान का अध्ययन कर ईश्वर व जीवात्मा सहित सभी पदार्थों के सत्यस्वरूप व ईश्वर को उनके बनाये जाने के प्रयोजन को जानना चाहिये। ईश्वर के जो उपकार हम मनुष्यों पर हैं उनका विचार कर उनके लिए उसका हृदय से धन्यवाद प्रति दिन प्रातः व सायं करना चाहिये। ईश्वर का धन्यवाद करने का उपयुक्त तरीका सन्ध्या वा ध्यान के द्वारा ईश्वर के सत्य गुणों की स्तुति करना व उसका धन्यवाद करना है। हमें योगदर्शन का अध्ययन कर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की विधि सीखनी चाहिये व उसका पालन करना चाहिये जिससे हम ईश्वर के प्रति कृतघ्न न कहलावें। ईश्वर सर्वतो-महान है। ईश्वर सर्वश्रेष्ठ है, सृष्टि में उसके समान कोई नहीं है। हम ईश्वर के ऋणी हैं। उससे हमें सुख प्राप्त होता है। ईश्वर ब्रह्माण्ड के अन्य सहस्रों वा अनन्त सूर्य लोकों में भी हमारी पृथिवी के समान सभी जीवों की उत्पत्ति, पालन, रक्षा आदि कार्य कर रहा है। उसको हमारा नमन है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य