ग़ज़ल- मैं क्या मेरी आरज़ू क्या
मैं क्या मिरी आरज़ू क्या लाखों टूट गए यहाँ
तू क्या तिरी जुस्तजू१ क्या लाखों छूट गए यहाँ
चश्म-ए-हैराँ२ देख हाल पूँछ लेते हैं लोग मिरा
क़रीबी मालूम थे हमें, हम-नशीं३ लूट गए यहाँ
फूलों की बस्ती में काँटों से तो न डरते थे हम
सालों से हो रखे थे इकट्ठे, ग़ुबार४ फूट गए यहाँ
वक़्त के साथ बदल जाने दो ये मज़हबी५ रिश्ते
बे-ख़लिश६ हो जियो जाने कितने रूठ गए यहाँ
क़ाबिल-ए-इम्तिहाँ७ जान सब्र परखते हैं मिरा
सख़्त मिज़ाज है ‘राहत’ वर्ना लाखों टूट गए यहाँ
डॉ रूपेश जैन ‘राहत’
ज्ञानबाग़ कॉलोनी, हैदराबाद
०२/०८/२०१८
शब्दार्थ:
१. जुस्तजू – आकांक्षा, इच्छा, तलाश २. चश्म-ए-हैराँ – आश्चर्यचकित आँखें ३. हम-नशीं – साथी ४. ग़ुबार – उद्गार (जैसे – मन का ग़ुबार निकालना) ५. मज़हबी – धार्मिक ६. बे-ख़लिश – बिना टीस ७. क़ाबिल-ए-इम्तिहाँ – परीक्षा के योग्य