तूफ़ान के थपेड़े
मै अपने गांव में रहा कि शहर में रहा।
जज्बे ए इंसानियत मेरे जिगर में रहा।
वो साहिबे मसनद कब समझेंगे भला,
के आम आदमी हमेशा दरबदर में रहा।
वो क्या जाने कि क्या है तूफान के थपेड़े,
जो शख्स डरा रहा, हर वक्त घर में रहा।
कैसे निभता राब्ता ऊँचे ऊँचे पहाड़ों से,
मै ठहरा नही, हर वक्त सफर में रहा।
तय है एक दिन कत्ल होना राहे तरक्की में,
ये खौफ तो हर हरे भरे शजर में रहा।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”