मौसम
फिर ढूंढ लाओ वही गुलमोहर वाला मौसम।
हदे निगाह हरे भरे शजर वाला मौसम।
नदी की रेत में ढूंढते थे मिल के सीपियाँ,
अब कहाँ रंग बिरंगे पत्थर वाला मौसम।
गुड्डे गुडियों की शादी, वो सजी सजाई बरातें,
याद आते हैं बहुत घर घर वाला मौसम।
उन दिनों हम कितने खुश थे और अमीर भी,
कागज के जहाज और लश्कर वाला मौसम।
सीमेंट के जंगलों में कौन याद करे अब,
ऊँचे पहाड,घास फूस के छप्पर वाला मौसम।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”