देशकाल परिस्थिति के साथ ही
बढ़ जाती हैं आवश्यकताऐं।
पूर्ण हुई यदि न आवश्यकता
तो बन जाती हैं समस्याऐं।।
ले हाथ झण्डा
बढ़ जाती हैं राहें।
बजा बिगुल आन्दोलन का
तो तन जाती हैं बाहें।।
लंबे अंतराल से
खुलती नींद शासन की।
करते मंत्रणा तब
समस्याओं के समाधान की।।
बनाकर प्रतिनिधि अपना
भेजता तब शासन।
कर जनता से वार्ता
दे जाता वह आश्वासन।।
मात्र औपचारिकता निभाने
आ जाते हैं नेता।
कभी न पूरा होने वाला
ऐसा आश्वासन वह दे देता।।
कर विश्वास आश्वासन का
रुक जाते हैं आन्दोलन।
लेकिन•••
समय चक्र के चलते
पूर्ण हुआ न आश्वासन।।
उठ जाती है आवाज फिर
झूठे वायदे के खिलाफ।
सक्रिय हो नेता व अधिकारी
भागे देने को इंसाफ।।
किसी तरह जन भावनाओं को
करते हैं अंगीकार।
लेकिन आश्वासन के तहत
हो सकती नहीं मांग स्वीकार।।
नेता मंत्री व अधिकारी
विकास के हैं पदधारी।
लेकिन•••
क्षेत्र विकास के बदले
स्वविकास रहता कुछ का जारी।।
मांग अर आंदोलन करना
होता भले ही आम जन अधिकार।
लेकिन•••
कर्तव्य पालन से श्रेष्ठ नहीं
कोई नागरिकता का मूल आधार।।
ध्यान रहे!
झूठी घोषणा व अति आवश्यकता से
हो सकता नहीं विकास।
सच्चे मन से जन सेवा कर
हो सकता जीवन में प्रकाश।।
कालचक्र के साथ ही
बदल जाती है आवश्यकता।
हो शीघ्र पूर्ण सर्वजन इच्छा
यही प्रभु से स्नेहिल आशा करता।।
— शम्भु प्रसाद भट्ट “स्नेहिल”