वो काले साये
हजारों सालों पहले आएं
हमारी भूमि पर
वे असलों से लैस होकर
मंडराएं हमारे खेतों, घरों, मैदानों और
पहाड़ों पर।
फूलों के खिलनें से पहले,
पंछियों के चहकनें से पहले,
रौंद दी गई पत्तियाँ, सील दी गई पंछियों की
ज़ुबान।
तलवारों से काट दी गई
हमारी,
इंसानियत की जड़ें।
डाल दिया गया
ज़हरीला मट्ठा
अंकुरित पौधों के
मूल में
धर्म ,जाति, वर्णों,
काल्पनिक लोक का।
उजाड़ दी गई हमारी हस्ती,
हम डरे नहीं तलवारों से,
मगर
काले साये इस
कदर फैले कि
हमारी महकती बगिया को
अपने आग़ोश में
ले लिया।
ज़ाल बिछ चुका था।
और साये हमेशा के लिए
हम पर मंडराते रहे।
आज हम अंधेरों में क़ैद
उन सायों के आदी हो चुके हैं।