व्यंग्य : सम्भावना
हम सभी सम्भावनाओं को देखकर कार्य करते हैं। जैसे न्यूज़ में सुना-देखा, “अगले चौबीस घंटे में बारिश होने की सम्भावना है, सूखा पड सकता है, सूनामी आ सकती है आदि आदि।“ बस हम सभी उसी हिसाब से अपनी अपनी तैयारी करने में लग जाते हैं। सख्त गर्मी अपनी लालिमा लिये बेशक चेहरा लाल कर रहा हो मगर सम्भावना बारिश की हो तो हम छाता-रेनकोट के बिना बाहर नहीं निकलते। धुले कपडे घर के भीतर ही सुखायेंगे और अगर बाहर सुखा भी दिये तो नींद हराम करके भी हर समय मौसम पर ही नजर गडायेंगे कि कहीं बेदर्दी बादल का गुस्सा फूट ना जाये। यह बात अलग है कि हमारे यहाँ मौसम पहले आता है बादल बाद में! खबर पहले आती है सच्चाई बाद में।
हीरोईन को सम्भावना है कि अगली फिल्म में प्रोड्यूसर या सूपर स्टार उसे ही फिल्मों में ले सकता है, बस फिर क्या बात है! प्रोड्यूसर, सूपर स्टार की बल्ले ही बल्ले। जितना चाहो जिधर चाहो उतना भोगो। खुद तो खुद औरों को भी परोसों। यह अलग बात है कि एक फिल्म के लिये एक ही हीरोईन को थोडे ही सम्भावना थी। अनेक रम्भायें, भावनायें, आभायें, गाभायें आदि आदि की सम्भावनायें धरी की धरी रह जाती हैं क्योंकि सम्भावनाओं का मत्था तो विजय आल्या पर टिकाया गया था। मत्था के ऊपर विजयी भव की नोट की गठरी सरकती हुई प्रोड्यूसर की गोद में हीरोईन के साथ टपकती है। मायानगरी की नगरी में माया का अपमान हो सकता है मगर माया का नहीं। आखिर माया के लिये ही तो सारी माया रची जाती है, प्रेम के मोह से मुक्ति ली जाती है।
सरगना को सम्भावना है कि इनकाउंटर कर दिया जायेगा क्योंकि वह अनेक मासूमों, बेगुनाहों की आहों से लिपटी वकील की फाईलों को कब तक तारीखों का भोज खिलाता रहेगा। आखिर व्यवस्था भी कोई चीज होती है। कभी ना कभी तो बदलती है! सरगना, गुण्डों, चोर, उचक्कों को जैसे ही सम्भावना होती है कि उनका इनकाउंटर होने वाला है वो सभी अपने दल बल के साथ थाने सरेंडर करने पहुँच जाते हैं। वैसे भी हमारे यहाँ गुण्डों का पालन पोसन करने की प्रथा हर सरकार में होती आयी है। और हो भी क्यों ना भाई! होनी भी चाहिये! आखिर भाई ही तो भाई से बचाता आया है। अब यह बात अलग है भाई भाई में अंतर होता है अगर यकीन ना हो तो महाभारत देख लो।
जगह जगह युवा नौकरी के लिये फार्म भरते रहते हैं। इंटर्व्यु की दहलीज तक पहुँचकर भी खाली हाथ लौटना दूसरी बात है। मुख्य बात है सम्भावना बनी रहनी चाहिये कि नौकरी मिलेगी ताकि फार्म भरते रहें, तैयारी करते हैं। सम्भावना ना होती तो क्या फार्म भरते? क्या अपनी जबानी के दिनों को तीस पार करते हुए भी कुवाँरे रहते? दिन रात योजना, कुरूक्षेत्र, प्रतियोगिता दर्पण आदि अनेक पत्रिकाओं व अनेक अखवारों में अपना सिर खपाते? नहीं, बिलकुल नहीं। तब इन पत्रिकाओं अखवार की अपार बिक्री कम होने की सम्भावना हो जाती। अधिक बेरोजगारी से कुछ का रोजगार भी बेहतर चल रहा हो तो बहुत बढिया काम है। आखिर बेरोजगारी से ही तो रोजगार की सम्भावनाएं हैं। सम्भावना बनी रहनी चाहिये प्रयास बना रहता है। यह बात अलग है कि उसमें कुंठित समाज का बीज भी पनप रहा होता है।
— संगीता कुमारी