चारदीवारी
ढूंढता हूं इंसां को ईंट गारों की चारदीवारी में।
उगते है केक्टस अब के गुलाब की क्यारी में।
सोचा था कि न याद करेंगे तुम्हें अब भूले से,
फिर तुम्हें याद किया दिल ने नींद की खुमारी में।
सियासत के हमाम में हर कोई बेलिबास है,
सबके हाथ रंगे है सपनों की कालाबाजारी में।
पा गए वो खिताब भी ,जो लगे रहे जी हुजुरी में,
के सब कहाँ होते है माहिर राग दरबारी में।
तकते तकते पथरा गई अवाम की नजरें,
उन्हें वक्त कहाँ,वो जुटे है चुनावी तैयारी में।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”