लघुकथा – अवसर
काया बहुत कमजोर हो गई है, किसी तरह कूल्हती कराहती नहाने चलीं गई, नहाना आरंभ ही किया था कि , नथुनों में देसी घी के हलुवे और बेसन के बझियों की सौंधी खुश्बू नाक में आ घुसी । ऐसा कई बार होता है । बाहर आने तक सब साफ । और फिर सूखी ब्रैड और चाय सामने रख देती बहू । आज तो खा के रहूंगी।
दो लोटे पानी डाल पिछ्हतर वर्ष की रुक्मिन उल्टी सीधी साड़ी लपेट गुसल -खाने से बाहर निकल आई। भूख से आंते कुलबुला रहीं थीं। न धूप -अगरबत्ती जलाई न पूजा की। पतली दाल ठंडी रोटी, बस यही खाना रोज का ,महीनों से कुछ अच्छा नहीं खाया ।
सीधी बैठक में पहुंच गईं बेटा दोस्त के परिवार के साथ बैठा था टेबिल पर नाश्ता सजा था। बहू ने बड़ी बड़ी आखें करके देखा पर वे टस से मस नहीं हुईं।
दोस्त की बीबी ने बड़े प्यार से अपने बगल में जगह बना दी बैठिये न अम्मा कैसी हैं? बड़ी कमजोर लग रही हैं, खाना वाना नहीं मिलता क्या ? बहू का चेहरा एक पल को सफेद पड़ गया। वे कुछ जवाब देतीं, कहतीं उसके पहले ही बहू ने हलुआ -भजिया का एक बड़ा प्लैट उनके लिये लगा कर झट से पकड़ा दिया लीजिये मां जी। क्योंकि ये… तेवर दिखाने का अवसर नहीं था।
— अनुपमा सोलंकी