धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेद, ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के सत्य स्वरुप का प्रचार करने से आर्यसमाज मुझे प्रिय है

ओ३म्

संसार में सत्य और असत्य तथा विद्या और अविद्या का अस्तित्व है और मनुष्य को दोनों का ज्ञान होना चाहिये। यदि हमें पता हो कि सत्य क्या है और विद्या क्या है तो हम उसके विपरीत व उल्टे असत्य व अविद्या को भी समझ सकते हैं। मनुष्य के मन में अनेक बार यह प्रश्न उठते हैं कि मैं कौन व क्या हूं? क्यों मेरा मनुष्य जन्म हुआ? मैं जन्म से पूर्व था या नहीं था तथा मरने के बाद रहूंगा या नहीं? इसी प्रकार यह संसार मुख्यतः सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, लोकान्तर एवं पृथिवी के नाना प्रकार के मनुष्य एवं प्राणियों के लिए उपयोगी पदार्थ किसने बनाये हैं? अपने आप बने तो कैसे? क्या जड़ प्रकृति को पता था कि मनुष्य को दूध पीना है, फल खाने हैं या भोजन रोटी, चावल, दालों, सब्जियों व घृत एवं दधि आदि का प्रयोग करना है? प्रयोगों से यह सिद्ध है कि प्रकृति में ज्ञान व संवेदना नहीं है जैसी की मनुष्य व पशु आदि अन्य प्राणियों में पायी जाती है। इससे यह मानना कि जड़ प्रकृति अपने आप सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व लोक लोकान्तर के रूप में बनकर पृथिवी पर सभी प्रकार के उपयोगी अन्न, जल, वायु, अग्नि आदि की उत्पत्ति कर प्राणियों को जन्म व मरण की व्यवस्था करती है, हमें यह विचार घोर अज्ञानता का प्रतीत होता है। यदि हमें किसी चीज का ज्ञान नहीं है तो हमें ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिये। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने डंके की चोट पर घोषणा की कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने दिया था। ईश्वर ने वेद ज्ञान कैसे दिया था इसका पूरा उल्लेख सत्यार्थप्रकाश में वर्णित है। यदि कोई व्यक्ति सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और वेद आदि सहित ऋषियों के ग्रन्थों को नही पढ़ता तो वह सत्य ज्ञान तक नहीं पहुंच सकता। ऐसे व्यक्ति को ही अज्ञ तथा पक्षपातपूर्ण कहा जाता है जो कि मनुष्य का एक निन्दनीय गुण वा अवगुण होता है। हां, सत्यार्थ प्रकाश व वेद पढ़कर व समझने के बाद कोई वेद, ईश्वर, जीवात्मा, ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि की आलोचना करता है तो उसका उत्तर देना व समाधान करना वेद व आर्यसमाज के विद्वानों व अनुयायियों का कर्तव्य बनता है। वेदों को देखे बिना ही घोषणा कर देना कि ईश्वर नहीं है या है तो कहीं दूर आसमान में बैठा है, यह बात किसी भी स्थिति में स्वीकार करने योग्य नहीं है।

मनुष्य एक चेतन सत्ता है। मनुष्य का शरीर अवश्य जड़ है पर यह शरीर तो एक उपकरण व साधन की तरह कार्य करने के लिए हम जीवात्माओं को इस सृष्टि में विद्यमान सर्वव्यापक ईश्वर नामी परम सत्ता से मिला है। हमारा मुख्य कर्तव्य है कि हम अपनी आत्मा व शरीर के विषय में समुचित जानकारी प्राप्त करें और इसके साथ इस संसार को बनाने, चलाने व इसमें छुपे संसार के प्रयोजनों को भी जाने व समझें। यदि हम ऐसा नहीं करते और मात्र भौतिक पदार्थों के ज्ञान, भौतिक सम्पत्ति व पदार्थों सहित अनित्य व अस्थिर सुखों को ही महत्व देते हैं तो हम बुद्धिमान मनुष्य नहीं कहे जा सकते। हमें सभी प्रश्नों के सन्तोषजनक व बुद्धिपूर्वक समाधान खोजने व जानने चाहियें और सत्य को स्वीकार भी करना चाहिये। ऐसा करके ही हम मनुष्य अर्थात् मननशील प्राणी कहे जा सकते हैं। हमारे वैज्ञानिकों व विद्वानों ने अनेक प्रकार के ज्ञान, गणितीय सिद्धान्त व वैज्ञानिक उपकरणों वा यन्त्रों आदि की खोज कर मनुष्य जीवन को सुखी बनाया है। यह कार्य प्रशंसनीय है और सभी मनुष्य वैज्ञानिकों एवं विद्वानों के ऋणी हैं। इसके साथ सभी वैज्ञानिकों व विद्वानों का भी यह मुख्य कर्तव्य है कि वह संसार व प्राणीमात्र को उत्पन्न करने वाले उत्पत्तिकर्ता ईश्वरीय सत्ता व मनुष्य एवं प्राणियों में विद्यमान जीवात्मा नामी सत्ता को भी जाने और उसका जन-जन में प्रचार कर उन्हें जनायें। वह बतायें कि क्यों मनुष्य को त्यागपूर्वक सृष्टि के पदार्थों का भोग करना चाहिये। मनुष्यों को परोपकार करना चाहिये तो क्यों और नहीं करना चाहिये तो क्यों? क्या मृत्यु के बाद हमारा जन्म होगा? यदि नहीं होगा तो क्यों और होगा तो कैसे व किस लिए? अभी विज्ञान ने इन प्रश्नों को छुआ नहीं है। इस कारण हमें लगता है कि विज्ञान अभी अपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर भी विचार करना चाहिये और इस कार्य में वेद, दर्शन, उपनिषद सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की सहायता ली जानी चाहिये। ऐसा करके ही इनका सही समाधान मिल सकता है और इससे मानवजाति का कल्याण हो सकता है। यदि इन प्रश्नों को लटका कर रखा जायेगा तो मनुष्य अविद्या वा अज्ञान में फंसे रहेंगे और वह मानव जाति को प्राप्त हो सकने वाले अमृत अर्थात सुखमय जीवन और मोक्ष आदि सत्य लक्ष्यों को प्राप्त करने से वंचित हो जायेंगे। यह कार्य यद्यपि ऋषि दयानन्द ने बहुत अच्छी प्रकार सम्पन्न कर दिया है परन्तु इस पर सभी वैज्ञानिकों एवं सभी मत सम्प्रदायों के आचार्यों की स्वीकृति रूपी मोहर लगना अभी शेष है। इसके अभाव में मानव जाति की भारी हानि हो रही है। सभी मनुष्य अपने जीवन को ईश्वर व जीवात्मा सहित उपासना व यज्ञादि का सत्य स्वरूप जाने बिना अपना जीवन जो मोक्ष, अमृत व जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है, उससे विमुख होकर उसे व्यर्थ कर रहे हैं।

ऋषि दयानन्द ने जीवन में मनुष्य जीवन में उठने वाले सभी प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार किया और देश भर में घूम घूम कर विद्वानों व आचार्यों से अपने प्रश्नों का समाधान करने सहित उपलब्ध सभी ग्रन्थों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया। उन्होंने योग गुरुओं की भी खोज की थी और उन्हें प्राप्त कर योग विद्या को भी प्राप्त किया था। यह योग विद्या मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार कराती है जिसको सिद्ध कर लेने पर मनुष्य जन्म व मरण सहित सभी दुःखों से छूट जाता है। ऋषि दयानन्द ने योग के साथ सृष्टि के सभी रहस्यों को भी वेद योग दोनों के द्वारा जाना प्रत्यक्ष किया था। उन्होंने सन् 1863 से 1883 तक 20 वर्षों तक सत्य ज्ञान वेद का प्रचार किया और सभी विद्वानों मतों के आचार्यों से मिलकर उनका सन्देह निवारण कर अपनी सभी मान्यताओं को सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों लिखकर प्रस्तुत भी किया है। ऋषि दयानन्द एक अभूतपूर्व कार्य यह भी कर गये हैं कि उन्होंने चार वेदों का वेद भाष्य प्राचीन ऋषि पद्धति पर करने का प्रयत्न आरम्भ किया था। वह वेदभाष्य पूरा तो नहीं कर सके परन्तु उन्होंने यजुर्वेद का पूरा ओर ऋग्वेद के लगभग आधे भाग का भाष्य किया है। शेष भाष्य उनके अनेक शिष्यों ने बहुत उत्तमता से पूरा किया है। मानव जाति का सौभाग्य है कि आज उसे वेदों सहित दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों के भाष्य व टीकायें संस्कृत सहित हिन्दी भाषा में भी प्राप्त हैं। कुछ नैट साइटों पर भी यह सभी ग्रन्थ हिन्दी टीकाओं सहित सुलभ हैं। एक सामान्य हिन्दी भाषी व्यक्ति भी वेदों व दर्शनों आदि के ज्ञान से सम्पन्न हो सकता है जो ऋषि दयानन्द से पूर्व सम्भव नहीं था। यह ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज सहित हमारे वैज्ञानिकों की बहुत बड़ी देन है।

देश व संसार में धार्मिक व सामाजिक अन्य मत व संस्थायें हैं। फिर हम आर्यसमाज को ही क्यों माने? इसका उत्तर है कि हमें आर्यसमाज से मनुष्य जन्म विषयक जो उपयोगी सत्य ज्ञान प्राप्त होता है वह और किसी मत, सम्प्रदाय व संस्था से प्राप्त नहीं होतो है। वेद शुद्ध आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक ज्ञान के ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द अध्यात्म ज्ञान व विज्ञान के ऋषि, विद्वान व वैज्ञानिक थे। उन्होंने ईश्वर व आत्मा का साक्षात् किया था। उन्होंने स्वानुभूत ज्ञान को अपने तक सीमित न रखकर उसे पूरे विश्व समुदाय को प्रदान किया। उनसे पूर्व यह सभी ज्ञान विशेष व सामान्य किसी मनुष्य को भी उपलब्ध नहीं था। आज ऋषि दयानन्द की कृपा व सहाय से संसार में करोड़ों लेग ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप को जानने सहित ईश्वरोपासना व यज्ञ की सत्य व प्रभावशाली पद्धति को भी जानते हैं व उसके अनुसार साधना करते हैं। ऋषि दयानन्द ने ही बताया कि मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, छुआछूत, ऊंच-नीच आदि अनुचित क्यों हैं? ईश्वर को कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका ज्ञान भी उन्होंने कराया है। ऋषि भक्त इस बात से सन्तुष्ट हैं कि वह ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानते हैं। ईश्वर के सत्य स्वरूप व गुणों आदि का जानना ईश्वर साक्षात्कार के आवश्यक व अपरिहार्य है। जो ईश्वर के सत्य स्वरूप को नहीं जानता वह ईश्वर को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर की प्राप्ति अष्टांग योग से ही सम्भव होती है। यम, नियमों सहित आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान व समाधि का भी ईश्वर साक्षात्कार में महत्व विशेष है। ईश्वर व जीवात्मा सहित अन्य सभी विषयों का ज्ञान स्वाध्याय से ही किया जा सकता है। आज सभी विषयों का साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। हम घर बैठे वेद व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं। ओ३म् व गायत्री मन्त्र का जप तो एक अपढ़ व्यक्ति को कराकर भी उसे उसके आध्यात्मिक जगत में ऊंचा उठा सकते हैं। आर्यसमाज वेदों सहित ऋषियों के वेदानुकूल ज्ञान का इस पूरी सृष्टि में एकमात्र प्रचारक है। हम सब को भी आर्यसमाज से जुड़ कर वेद प्रचार कर पुण्य का भागी बनना चाहिये। यह सभी मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य भी है। यह भी स्पष्ट कर दें कि आर्यसमाज कोई साम्प्रदायिक संस्था वा संगठन नहीं है। यह शुद्ध आध्यात्मिक एवं सामाजिक संगठन है जिसकी देश की हितकारी अपनी राजनैतिक सोच भी है। यह मनुष्य व प्राणी मात्र के हित की बातें सोचता व करता है। देश की उन्नति इसके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। आर्यसमाज की दृष्टि में देश सभी मत-मतान्तरों से ऊपर है। देश है तो हम हैं। हमारे शरीर का एक-एक कण इस देश की मिट्टी, वायु व जल से बना है। जो देश से ऊपर किसी अन्य चीज को मानता है, उसे गुमराह व अज्ञानी ही कह सकते हैं। सरकार को यह कानून भी पारित कर देना चाहिये कि देश से ऊपर देशवासियों के लिए और कुछ नहीं हो सकता न है। जो इस सिद्धान्त को मानता है वही देशभक्त कहला सकता है। आर्यसमाज उच्च आदर्शों को मानने वाली संस्था है। इसमें विचार की पूर्ण स्वतन्त्रता है। वेद और वैदिक साहित्य से सभी विषयों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। आर्यसमाज के सिद्धान्तों को जानकर व मानकर ही मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त होते हैं। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसी लिए आर्यसमाज मुझे प्रिय है व देश के 125 करोड़ लोगों सहित विश्व के सभी लोगों को भी होना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य