लघुकथा – बिछड़ा हुआ अधूरा इश्क
“क्यों ये रस्मों रिवाजों के बन्धन तोड़कर मेरे साथ नही आती… क्यों मेरा प्रेम मुकम्मल नहीं करती… मैं भी तो तुम्हारे लिये कान्हा बनकर तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ … तुम्हारे हिस्से का जहर पीने को तैयार हूँ .. क्या तुम मेरे लिये मीरा नहीं बन सकतीं ”
किसी छोटे बच्चे की तरह बड़ी ही मासूमियत से कहा था बिछड़े हुए इश्क ने ।
“मीरा बनना बहुत आसान है क्योंकि वह सिर्फ मीरा थी ….माँ होती तो फिर वह मीरा न होती …प्रेम पर मातृत्व भारी है …और मै एक माँ भी हूँ ”
जाते जाते पलट कर न देखा एक बार भी इश्क को कि कहीं कमजोर न पड़ जाये दोनों।
— रजनी चतुर्वेदी