राजनीति

आलेख– बढ़ती बेरोजगारी, युवा और उनपर आज की राजनीति

युवा, राजनीति और बेरोजगारी। ये तीन शब्द हिंदी भाषा में अपना-अपना अर्थ और महत्व रखते हैं। पर किसी न किसी मोड़ पर आकर अंतर्निहित होते से लगते हैं। इसके पीछे का तर्क यह है, कि युवाओं की बात राजनीति करती है, सत्ताशीर्ष तक पहुँचने के लिए। तो बेरोजगारी देश और समाज से दूर करने का कार्य भी रहनुमाई तंत्र का ही तो है। ऐसे में हुए न ये तीनों शब्द आपस में अंतरजाल स्थापित किए हुए। फिर युवा अगर देश और समाज का कर्णधार है। तो एक अदद नौकरी उसकी जरूरत।

बिना नौकरी के एक युवा न अपने घर-परिवार की मदद कर सकता है, और न देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था में सहभागिता निभा सकता है। आज हम मानते हैं, कि सुनहरे भविष्य के लिए सरकारी नौकरियों की प्राथमिकता बढ़ रही। लेकिन ऐसे में अगर देश की शिक्षा व्यवस्था के साथ शासन-प्रशासन का तौर-तरीका और प्रबंधन बेहतर नहीं होगा। तो युवाओं के हाथ में नौकरी कहाँ से हो सकती है, और जब युवाओं के पास रोजगार के साधन नहीं होंगे। तो कैसे हर हाथ शक्ति और हर हाथ तरक़्क़ी का फॉर्मूला सिद्ध होगा।

सरकारी आंकड़े की बात करें तो देश बेरोजगारी के दंश से तो पीड़ित है। साथ में कोई बेहतर क़दम हमारे सियासतदां भी नहीं उठा पा रहें। जिससे बेरोजगारी के दंश से पीड़ित होते युवाओं को उभारा जा सके। आज हालत यह है, कि राजनीति के हैसियतदार धर्म, मज़हब की बात करते हैं, पर वाज़िब मुद्दों पर प्रखर और मुखर दिखाई नहीं देते। इतना ही नहीं उनकी जो बनी-बनाई नीतियां हैं, वे भी जंगरोधी मालूम नहीं पड़ती। ऐसा इसलिए क्योंकि बढ़ती बेरोजगारी का एक कारण अगर बढ़ती जनसंख्या है। तो उस पर नियंत्रण आज़तक हम दो, हमारे दो की सरकारी नीति न लगा पाई है। इतना ही नहीं आज के युवाओं की मांग क्या है, शायद उसका भान भी हमारे नीति-निर्माणधीन कार्यकर्ताओं के पास नहीं है। न आज तक नई शिक्षा नीति पर अमल हो पाया है, न ही राजनीति में व्यापक स्तर पर प्रतिनिधित्व उस हिस्से को मिल पा रहा। जिसे देश का कर्णधार माना जा रहा। फिर ऐसे में कैसे प्रगतिशील और विश्व का नेतृत्व करने वाला देश तैयार हो रहा आधुनिक भारत की पंचलाइन के साथ। यह समझ से परे है।

1) देश में बढ़ती बेरोजगारी का आलम आंकड़ों में:-
ज़िक्र देश के दिल मध्यप्रदेश से करते हैं। इस सूबे में युवाओं की लंबी तादाद है। सरकारी आंकड़े कहते हैं, मध्यप्रदेश में लगभग 1 करोड़ 41 लाख युवाओं की तादाद है। तो ऐसे में अगर देश के दिल मध्यप्रदेश के युवाओं को अपने लिए रोजगार की गुहार के करने बाबत सूबे में बेरोजगार दल का गठन तक करना पड़ रहा है। फिर हमें शायद यह बताने की सूझेगी नहीं, कि आख़िर बेरोजगारी घर किस स्तर तक आज की व्यवस्था में कर गई है। यह आपको भी पता चल गया होगा। फिर भी एक बार अनुमानित आंकड़े पेश कर ही दिए जाएं। शायद उससे कुछ फ़र्क सियासतदानों पर पड़ जाएं।

तो बीते दो वर्षों में बेरोजगारी की संख्या मध्यप्रदेश सूबे में ही 53 फ़ीसद तक बढ़ गई है। सरकारी रपट के मुताबिक जहां देश के ह्रदय मध्यप्रदेश में दिसंबर 2015 तक पंजीकृत बेरोजगार लगभग 15 लाख के क़रीब थे। वह संख्या 2017 के आखिर में आते-आते विकास के दावों और सरकारी नीतियों से आंख मिचौली करते हुए लगभग 24 लाख के करीब पहुँच जाती है। इसके अलावा स्थिति दयनीय तो तब मालूम पड़ती है, जब आंकड़ों की निगहबानी करने पर पता चलता है, कि सूबे के 48 रोजगार कार्यालयों ने मिलकर 2015 में कुल 334 लोगों को ही रोजगार उपलब्ध कराया। फिर देश के कोने कोने तक फैले सरकारी रोजगार के कार्यालय सिर्फ़ राजस्व को चपत लगा रहे। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं लगता। ये बात हुई देश के दिल की। अब बात राष्ट्रीय स्तर की भी कर लेते हैं।

आज अपने राष्ट्र की प्रगति और विकसित देश बनने के सामने अनेक समस्याएं चट्टान की तरह रोड़ा बन कर ख़डी है। जिसमें एक महामारी रूपी बला का नाम बेरोजगारी भी है। शायद यह समस्या हर समस्या की जननी है, तभी महात्मा गांधी ने इसे समस्याओं की समस्या कहा था। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन ने हाल ही में रोजगार पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। जिसके मुताबिक देश में बेरोजगारी का स्तर पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष एक स्तर ऊपर बढ़ गया है। यानि रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में भारत में 1 करोड़ 83 लाख लोग बेरोजगार थे। जो अब वर्ष 2018 में संख्या बढ़कर 1 करोड़ 86 लाख हो गई है। इसके साथ अगर श्रम मंत्री रहते हुए संतोष गंगवार कहते हैं, कि बेरोजगारी के स्तर में लगातार वृद्धि होने के बावजूद भी सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है।

ऐसे में रोजगार उपलब्ध कराने और स्वरोजगार को प्रोत्साहन दिलाने वाली नीतियों की कलई अपने आप खुलती नज़र आती हैं। फिर वह पूरे देश की बात हो, या किसी एक ख़ास हिस्से की। ऐसे में कोई अगर सामान्य ज्ञान की जानकारी में आपसे कहें, कि किस प्रदेश में हर छठवें घर मे एक युवा बेरोजगार और हर सातवें घर मे एक शिक्षित बेरोजगार बैठा है। तो आप धड़ल्ले से निःसंकोच जवाब दे सकते हैं। मध्यप्रदेश सूबे के दिल की यह दुख भरी कहानी है। तो अब ऐसे में सभी राज्य और केंद्र सरकारों को धर्म और मज़हब की धूनी रमाना छोड़कर ऐसे प्रयास करने चाहिए, जिससे बेरोजगारी के जिन्न से देश को छुटकारा मिल सके।

2) बेरोजगारी देश में बढ़ने के कारण:-

समय-समय पर रिपोर्ट आती है, कि इंजीनियरिंग करने वाले अधिकतर छात्र नौकरी के काबिल नहीं। इसके अलावा लगभग हर क्षेत्र के युवाओं को उस क्षेत्र का बुनियादी कौशल ही हमारी शिक्षा व्यवस्था नहीं दे पाती। जो एक बेहतर कामगार के लिए आवश्यक होती है। तो समझ यही आता है, कि कमजोर नीतियों और शिक्षा तंत्र के प्रति लापरवाही भरा सियासी रवैया देश के भविष्य पर ग्रहण लगाकर बैठ गया है। देश में उच्च शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा में फफूँदी लग चुकी है। जिसके पुनरुत्थान के लिए कोई नीति और विचार नीति-नियंता के पास दिख नहीं रहे। इसके बाद बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण जनसंख्या विस्फोट है। इस देश में रोजगार देने की जितनी योजनाएं बनती हैं। तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण वे सभी योजनाएं बेकार हो जाती हैं।

आज स्थिति तो एक अनार सौ बीमार वाली कहावत से भी आगे निकलती दिख रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तरप्रदेश सचिवालय में 368 पद पर तो ही भर्ती निकली थी, कुछ वर्ष पहले। लेकिन आवेदन 23 लाख लोगों ने किए थे। इसके अलावा बेरोजगारी बढ़ने का एक कारण युवकों में बाबूगिरी की होड़ भी है। आज के युवा पीढ़ी को अपने हाथ का काम करने में शर्म आती है। तो नीतियां भी तो उस लायक नहीं बनती। जिससे स्वरोजगार आसान और लाभदायक बन सकें। इन सब से हटकर बेरोजगारी बढ़ने का एक कारण बिना तैयारी के योजनाओं के लागू करने और मशीनीकरण को हद से ज़्यादा बढ़ावा देना भी है। गांधी जी ने भी मशीनों का विरोध किया था, क्योंकि एक मशीन कई कारीगरों के हाथ को बेकार बना डालती है। पर हमें आधुनिक बनना है। तो मशीनों का सहारा तो चाहिए ही, पर इसकी एक सीमा तो आवश्यक बांधी जा सकती है। जिससे काफ़ी हद तक लोगों को बेरोजगार होने से बचाया जा सके।

3) राजस्व फूंक सत्ताशीर्ष पर बने रहने की क़वायद बंद हो :-

तत्कालिन दौर में अगर हम देखें, तो गरीबी उन्मूलन के नाम पर अब तक आज़ादी के इतने बसंत बाद अरबों-खरबों रूपये फूंके जा चुके हैं। किन्तु गरीबी है कि वह अंगद के पाँव की तरह जमी हुई है। गरीबी उन्मूलन के नाम पर सरकार की समस्त योजनाएं क्यों फेल हो रही हैं। इसका कारण कोई कठिन नहीं समझना। उन्हें ग़रीबी दूर करने की फ़िक्र कहाँ। वे तो ग़रीबी के नाम पर अपनी सियासत साधने का कार्य करते हैं। शासन-सत्ता के लोग ख़ैरात बाँटकर देश की अवाम को अपंग बनाए रखना चाहते हैं। उनकी यह नीति अंग्रेजों से भी अधिक ख़तरनाक मालूम पड़ती है। जब देश में लाखों करोड़ों युवा विभिन्न डिग्रियाँ लिए सुनहरे भविष्य के सपने संजोये बूढ़े हुये जा रहे हैं। तो उन्हें रोजगार चाहिए, न कि मुफ़्त की राजनीतिक सहानुभूति। पर राजनीति के गुरु उन्हें बेरोजगारी भत्ता और ग़रीबी दूर करने के नाम पर राजनीतिक झुनझुना देते हैं। जिससे ग़रीब उनके ग़ुलाम बने रहें। तो अब अवाम को ख़ुद आगे आकर यह बतलाना होगा, कि उन्हें ग़रीबी दूर करने के नाम पर राजनीति की मीठी गोली नहीं चाहिए।

उनके परिवार में कम से कम एक सदस्य को नौकरी दिया जाए। फिर ग़रीबी तो अपने-आप दूर हो जाएगी। पर यहां एक कर्तव्य देश की अवाम का भी बनता है, कि वे हम दो, हमारे दो की नीति का अनुसरण भी करें। आज हमारे देश का दुर्भाग्य तो देखिए गऱीबी दूर करने के नाम पर अरबों-खरबों रूपए लुटाए जा रहें। वह जा कहाँ रहा। इसका कोई हिसाब नहीं, और न उससे गऱीबी दूर हो रही। पर जब देश में सरकारी विभागों में खाली पड़े विभिन्न विभागों के 24 लाख पद भरने की बारी आती है। तो राजस्व का रोना रोया जाता है। मतलब खामियां सामाजिक और राजनीतिक दोनों स्तर से है, पर उसका खामियाजा तो सिर्फ़ अवाम भुगत रही। तो उसे आगे आना पड़ेगा। जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर ही भले आएं। तब कुछ हद तक समस्या का निदान होता दिख सकता है।

4) राजनीति में भी तो युवाओं के लिए जगह नहीं:-
विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाले भारत में चुनाव में हर दल की नजरें युवाओं पर ही रहती है। दलील भी युवाओं की दी जाती है। कोई भी दल हो। सबके नारों का हिस्सा युवा होता है। कोई नारा देता है, युवा जोश। तो कोई युवाओं को आधार बनाकर ही अपनी रैलियों में भाषण देता है। लेकिन आलम यह होता है, न सकल नेतृत्व युवाओं को राजनीति में मिल पाता है, और न उनके हितों के बारे में सत्ता सीन होने वाले रहनुमा कभी सोचते हैं। तभी तो आज देश में युवा चेहरों की पहुँच संसद तक काफ़ी सिकुड़ी हुई है। हम अगर बात देश की विधानसभाओं में युवा चेहरों की करें, तो ऐसे चेहरे सीमित ही हैं। जिनके आँकड़े
पिछले वर्ष सम्पन्न हुए गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों से निकाल सकते हैं। इन दोनों राज्यों में सभी दलों ने मिलकर युवा शक्ति के हाथ पर विश्वास सिर्फ़ पांच फीसद ही कर सके।

जिसमें से जीते सिर्फ़ और सिर्फ़ एक तिहाई से भी कम उम्मीदवार। इन दोनों राज्यों में 35 से कम उम्र के कुल 25 उम्मीदवार उतारे गए थे, जिसमें से जीत केवल आठ की हुई। अगर यह स्थिति दो राज्यों की है। जो शिक्षा आदि मामलों में काफ़ी बेहतर स्थिति में हैं, तो अन्य के आंकड़े पेश करने की जरूरत नहीं।
ऐसे में अगर आंकड़ों की बात हो तो हर वर्ष केवल 18-19 वर्ग आयु के ही तीन फीसद मतदाता देश में बढ़ जाते हैैं। राज्यवार इनका औसत भी इसके ही आसपास होता है। जबकि झारखंड, दमन दीव, नगर हवेली जैसे राज्यों में यह बढ़ोत्तरी लगभग दस फीसद के आसपास भी देखी जाती है। ऐसी स्थिति में जब युवाओं को न रोजगार मिलेगा, न बेहतर शिक्षा मिलेगी और न ही राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो कैसे वे अपनी क्षमता का उपयोग देश के विकास में लगा सकते हैं। ऐसे में वे पथभ्रष्ट और समाज के लिए खलनायक नहीं बनेंगे, तो जाएंगे कहाँ। यह न आज की राजनीति सोचती है, न ही हमारा समाज। जो चिंता की बात है।

5) अन्य सामाजिक समस्याओं की मूलक बेरोजगारी:-
कहते हैं, न ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर होता है। ऊपर से अगर किसी नवयुवक ने लाखों रुपए ख़र्च कर पढ़ाई की। ऐसे में उसे योग्य और क़ाबिल वह शिक्षा न बना पाई। तो उसकी मनोदशा कैसी होगी। यह सहज अनुभूति की जा सकती है। उस पर कितना सामाजिक और पारिवारिक दवाब बढ़ जाता है। फिर वह इस दवाब में ग़लत कदम उठाने की तरफ़ कूच कर जाता है। तो उसे समाज बुरी नज़रों से देखने लगता है। यह प्रवृत्ति हमने और हमारे समाज ने ख़ुद बनाई है। तो उस पर फिर हम आक्षेप क्यों करते हैं। जब नवयुवक ग़लत राह पकड़ लेता है। आज की एक बड़ी समस्या यह भी है, कि लोग दूसरों पर अंगुली पहले खड़ी कर देते हैं। तो इस प्रवृत्ति में बदलाव करना होगा। ऐसा तो नहीं कि महंगी शिक्षा लेने का मतलब अच्छी नौकरी ही से की जाएं। हो सकता है, उसने कुछ अलग सोचकर वैसी शिक्षा ग्रहण की हो। पर आज हमारा समाज यह सोचता नहीं। अभी कोई महंगी पढ़ाई किया हुआ, युवक गांव में जाकर खेती करेगा। तो उसे लोग हीन भावना से देखने लगेंगे। जो सभ्य समाज के लिए अच्छी संस्कृति नहीं मानी जा सकती। इन्हीं सब कारणों से शिक्षित युवा भी कुंठित होकर अपराध, चोरी-डकैती जैसे कर्मकांडो में संलिप्त हो जाता है। तो कुछ बदलाव तो हमारे समाज की सोच में भी आवश्यक है। अपना कार्य करना कहीं से गलत नहीं। यह हम और हमारे समाज के लोग कब समझेंगे।

6) बेरोजगारी दूर करने के उपाय:-
ऐसा तो है, नहीं कि रहनुमाई व्यवस्था बेरोजगारी दूर करने का मलहम नहीं लगा रहीं। पर वह उपचार की सही पद्धति मालूम करना नहीं चाह रही। कहने को तो स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया भी चल रहा। लेकिन इसका असर हो कहाँ रहा। इसकी जांच नहीं हो पा रही। रोजगार कार्यालय भी चल रहे, पर ये सिर्फ़ राजस्व को चपत लगा रहे, या इसके अलावा परिणामदायक साबित हो रहे। इसकी पड़ताल करना शायद व्यवस्था अपना काम नहीं समझती। 18 से 35 वर्ष के युवाओं को स्वरोजगार स्थापित करने का सुनहरा माहौल उत्पन्न कराने का दावा भी किया जाता है। पर शर्तें ऐसी लाद दी जाती है, कि आम जन स्वरोजगार की जगह मजदूरी करना आसान समझता है। मतलब नीतियां तो बहुत हैं, पर जन सार्थकता का अभाव उसमें व्याप्त है।

सरकार अगर सच में बेरोजगारी दूर करना चाहती है, तो उसे स्वरोजगार की नीतियों को नरम बनाना होगा। जिससे उसका फ़ायदा आम जन भी ले सके, क्योंकि सिर्फ कागज़ी योजनाएं बेरोजगारी तो कम नहीं कर सकती। इसके अलावा देश के युवाओं का रुझान कृषि की तरफ बढ़ाने के लिए उन्हें उन्नत तकनीक के साथ देश- प्रदेश में ख़ाली पड़ी हजारों- लाखों एकड़ ज़मीनों पर नगदी की फ़सल आदि करने की समुचित सुविधाएं मयस्सर कराई जाए, क्योंकि कृषि ही ऐसा क्षेत्र है। जिसमें उत्पादन का गुण पाया जाता है, और बाक़ी सभी चीज़े तो रीसाइक्लिंग की जाती हैं। जिनका निश्चित भंडार होता है। पर दुर्भाग्य देखिए जिस देश की अर्थव्यवस्था का आधार आज़ादी से कृषि रही है। वहीं पर खेती-किसानी के लिए लचर नीतियों पर काम चल रहा। इससे इतर इजरायल जैसे कुछ छोटे देश आज कृषि के बल पर विकसित अवस्था में पहुँच गए हैं। तो सीख अब उन छोटे देशों से लेकर ही कृषि को उन्नतशील बनाकर युवाओं को उस तरफ़ बढ़ाना होगा। साथ में शिक्षा को रोज़गारपरक बनाने के लिए प्रयोगात्मकता पर बल दिया जाए। तब जाकर देश बढ़ते बेरोजगारी के जिन्न से कुछ हद तक मुक्त हो सकता है।

7) पुनश्च:-
अगर देश से बेरोजगारी ख़त्म हो गई, तो काफ़ी सामाजिक समस्याएं स्वतः हल हो जाएगी। तो अब समय की मांग है, कि देश और प्रदेश में एक स्वतंत्र युवा मंत्रालय का गठन भी किया जाए। इसके साथ राजनीति में युवाओं के लिए कम से कम 25 से 30 फ़ीसद सीटें आरक्षित की जाएं, क्योंकि अगर नए चेहरे सदन में पहुँचेगे तो उन्हें युवाओं की दुश्वारियां भी भान होगी और नए विचारों से ओत-प्रोत होंगे। जो बेहतर नीतियां युवाओं की बेरोजगारी दूर करने के लिए बना सकते हैं।
इसके अलावा अगर साथ में ग्रामीण स्तर पर कुछ कल-कारखाने ऐसे स्थापित करने चाहिए। जो स्थानीय बेरोजगारों के लिए रोजगार का साधन उपलब्ध करा सके। साथ में जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए समाज को भी सहयोग करना चाहिए। इसके अलावा देश में आर्थिक विकास की और ढांचागत योजनायें लागू की जाएं, तो बेरोजगारी जैसी मानव निर्मित समस्या हल हो सकती है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896