आलेख– महिला सुरक्षा के नाम पर कोरी लफ़्फ़ाज़ी की हद हो गई!
समाज में बच्चें हाशिए पर है, लेकिन जो बच्चें आश्रय स्थलों में रहने को बेबस और लाचार हैं। वे पहले से अकथनीय पीड़ा से प्रताड़ित हैं। विडंबना तो यह बनती जा रही। जो आश्रय गृह नया जीवन और आकाश तले खुशियों की संजीवनी देने के लिए स्थापित किए गए हैं। वे तो नरक से भी बद्दतर स्थिति में इन बच्चियों और महिलाओं को पहुँचा रहे। जिसे देखकर शायद यमलोक के यमराज की रूह भी कांप उठे। ऐसे में जिस आग की लपटें बिहार के मुजफ्फरपुर से उठी थी, वह देवरिया से होते हुए अब एक अन्य रूप में देश के दिल मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल तक पहुँच गई है। तो अगर महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी कहती हैं, कि मुजफ्फरपुर और देवरिया जैसे आश्रय गृह देश में ओर हो सकते हैं। तो उनकी बात तनिक भी संशय वाली मालूम नहीं पड़ती, क्योंकि हमारी रहनुमाई व्यवस्था तो सिर्फ़ अनुदान बाँटकर अपने कर्तव्यों से इतिश्री करना सीख गई है। उसे समय कहाँ कि वह जांच करे, कि आख़िर जिस एनजीओ और आश्रय गृह को पैसा जिस काम के मार्फ़त दिया गया। उसका किस तरह उपयोग हो रहा। करें भी क्यों आज के दौर में सत्ता में पहुँचते ही हर बात खुला खेल फरुखाबादी का जो हो गया है। मतलब सत्ताशीर्ष के चट्टे-बट्टे ही तो सफेदपोश से सांठगांठ कर आश्रय गृह आदि के मालिक बन बैठते हैं। ऐसे में सामाजिक विरोधी तत्वों के हौसलें बुलन्द तो होंगे ही।
हाल में भोपाल में सरकारी अनुदान से चल रहे छात्रावास में एक मूक-बधिर लड़की से दुष्कर्म का पर्दाफाश हुआ है। बिहार की घटना से सुशासन बाबू शर्मिंदा तो हुए, पर समय काफ़ी लगा दिया। उसके बाद बिहार में विपक्ष के नेता ने भी अपनी सियासी रोटी सेंकने के लिए गेंद फेंक कर कह डाला, कि उनका माथा मुजफ्फरपुर घटना की वज़ह से शर्म से झुक गया है। उसके बाद जब देवरिया के विन्ध्वासिनी नारी निकेतन में मानवता को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई, तो सूबे के मुख्यमंत्री ने सीबीआई जांच के आदेश दिए। वैसे जांच का मतलब हमारे देश में बचा क्या है, आज के दौर में इससे अनभिज्ञ तो है नहीं कोई। फिर दिखावे की लफ्फाजी से कुछ बदलाव होने वाला नहीं।
1) सुरक्षित जगह बची कहाँ है महिलाओं और बच्चियों के लिए :-
यूँ तो संसद में महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण का मुद्दा गूंजता रहता है। महिलाओं को 33 फ़ीसद आरक्षण देने का चुनावी चक्रव्यूह भी रचा बुना जाता है। पर अब महिलाओं और बच्चियों के हिस्से में आ क्या रहा। देवरिया में संस्था का नाम विन्ध्वासिनी, लेकिन काम देखिए जो बच्चियां देवी स्वरूप होती है, उन्हें सफेदपोश के सामने परोसा जा रहा। इससे न आप अंजान हैं, और न अब हम, क्योंकि बीते कुछ समय में बिहार से लेकर उत्तरप्रदेश, और कभी कभार देश के अन्य कोनों से दिल और दिमाग़ दोनों को स्तब्ध कर देने वाली घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं। ऐसे में जब सरकारी संरक्षण में चल रहे संरक्षण गृह ही बच्चियों और महिलाओं के लिए नरक बन जाएं। फिर ज़्यादा कुछ आज की व्यवस्था पर टिका-टिप्पणी करने लायक रह जाता नहीं। पहले मुजफ्फरपुर उसके एक माह के भीतर उत्तरप्रदेश का देवरिया जिला। ऐसे में जब रसूखदार लोग जो गैर-सरकारी संस्था के नाम पर सरकारी पैसे को चपत लगाते हैं। इसके बाद मासूम बच्चियों आदि को दरिंदो के हवाले कर देते हैं, और फिर पहले समूचा तंत्र अगर बेख़बर होने का ढोंग करता है। फिर प्रकारांतर में सरकार और अगर उनका तन्त्र ही सहभागिता व्यक्त करने लग जाएं। फिर कैसे उम्मीद की जाएं, कि कोई जगह आज के समय में सुरक्षित बची है। बच्चियों के लिए शायद इस खुले आकाश में अब बंदिशे काफ़ी बढ़ गई है। घर-परिवार तो पहले से असुरक्षित हो चला था। जब आँकड़े यह कहने लगे थे, कि लगभग दुष्कर्म की 90 फ़ीसद से अधिक घटनाओं में आस-पड़ोस और पहचान के लोग ही संलिप्त होते हैं। ऐसे में बचा क्या था। सरकारी तंत्र की देख-रेख की कुटिया। अब उसकी भी परतें खुलने लगी हैं। स्कूल-कॉलेज पहले से असुरक्षित थे ही। तो ऐसे में अब आधी आबादी जाएं, तो कहाँ। अपनी अस्मिता और आबरू को बचाएं रखने के लिए। यह उसके सामने यक्ष प्रश्न सा बनता जा रहा।
2) सियासतदां संवेदनशील और समाज को झकझोरने वाले मुद्दों पर सियासी रोटी सेक रहें:-
महिला सुरक्षा के नाम पर कोरी लफ़्फ़ाज़ी हर दल के सियासतदां करते रहते हैं। जो एक अनुचित रवैया है। सब के दावे रहते हैं, कि महिलाओं को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सत्ता में आते ही उनकी। पर जब हम ज़िक्र उन दो राज्यों की करते हैं। जहाँ सरकारी संरक्षण के आश्रय गृह ही बच्चियों के लिए नर्क बन कर उभर रहे। फ़िर क्या ज़िक्र करें, और क्या नहीं यह समझ आता नहीं। किसी भी दल की सरकार हो, महिला सुरक्षा के कोरे दावे में ही उसके पांच वर्ष निकल जाते हैं।
ऐसे में हम बिहार और उत्तरप्रदेश में कुछ समानता की बात वर्तमान में करें, तो ऐसे में यह कैसे मान लिया जाएं, जो धुंआ उठ रहा। उसकी लपटें इन्हीं दो राज्यों तक ही सीमित हो। पहले कुछ बातें जो बिहार और उत्तरप्रदेश में समानता प्रदर्शित कर रही। उनका जिक्र कर लेते हैं। बाक़ी का ज़िक्र शैने-शैने करते हैं। पहली समानता दोनों राज्यों के केंद्र में एक ही दल की सत्ता बैठी है, रहनुमाई तंत्र में। हाँ इतना भले है, कि बिहार में बैसाखी बनकर सत्ता पर एक खड़ाऊं अपना भाजपा बनाएं हुए है। तो पहली समानता के बाद ज़िक्र भाजपा के उस स्लोगन की कर लेते हैं, जो 2014 में लोकसभा और उत्तरप्रदेश विधानसभा में उसके सत्ता तक पहुँचने का अहम कारण बना। वह था, न अत्याचार, न भ्रष्टाचार। अबकी बार भाजपा सरकार। फिर सामाजिक असुरक्षा से हैरान-परेशान जनता ने दे दिया सत्ता की कुंजी। पर अब लगभग एक वर्ष के शासन के बाद क्या स्थिति उभर कर योगिराज में आ रहीं।
शायद ही इससे कोई अनजान हो। अभी हालिया घटना जो हुई, उत्तरप्रदेश में। उस पौराणिक देवारण्य वाले इस जनपद का कुछ हिस्सा कभी भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर में रहा है। गन्ना उत्पादन और चीनी मिलों से मिलने वाले वाली समृद्धि पर टिके इस जनपद की साक्षरता दर लगभग 70 फ़ीसद तो वहीं लिंगानुपात 1013 है। इसके इतर भी अगर समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन का गढ़ रहें, और विद्वत जनों की जन्मस्थली में जघन्य अपराध का खुला खेल फरुखावादी चल रहा। तो भगवा झंडे के तले चल रही सरकार डीएम आदि अधिकारियों को निलंबित मात्र करके अपने कर्तव्यों से इतिश्री नहीं कर सकती।
अगर यहां पर हम ज़िक्र पिछले एक वर्ष में नई सरकार आने के बाद उत्तर प्रदेश सूबे में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों के आंकड़ों का ग्राफ़ देखें, तो उसमें एक वर्ष के भीतर ही 24 फ़ीसद तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है। संत-महात्माओं की धरती रही उत्तरप्रदेश में आए दिन आठ महिलाओं से दुष्कर्म होता है। तो वहीं 24 महिलाएं अगवा करा ली जाती है। तो भले ही ऐसे में योगी सरकार अभियुक्तों की गिरफ्तारी और जिम्मदार अधिकारियों को फ़ौरी रूप से बर्खास्त किया हो। पर ऐसी स्थिति में बसपा की सुप्रीमों मायावती की टिप्पणी भी मौजूं लगती है, कि सूबे में सत्ता के सारथी के अपने खुद के खिलाड़ी अपने-आप को क़ानून से परे समझते हैं। फिर ऐसे में फिर सामान्य जनों को कैसे अपराध करने से रोका जा सकता है। ऐसे में हम अगर बिहार और उत्तरप्रदेश के बीच समानता से आगे बढ़े हैं, तो दूसरी समानता का जिक्र भी कर लेते हैं। एक जगह ज़िक्र सुशासन का होता है, दूसरी जगह सत्ताधीश बनकर बैठा योगी है। मतलब दोनों का अर्थ मिलता-जुलता ही राजनीति की शब्दावली में समझ सकते हैं। जिनका उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना ही है। ऐसे में एक माह के भीतर जो इन दोनों राज्यों के बीच तीसरी समानता उभरी है। उसने सुशासन आदि शब्दों को एक तरफ विखंडित करने का काम किया है। वहीं दूसरी तरफ़ सफेदपोश को बेनक़ाब करने का काम किया है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके पास दावों और वादों के झुनझुने से ज्यादा कुछ होता नहीं।
मुजफ्फरपुर बालिका आश्रय गृह की घटना ने समाज के दिल को स्तब्ध किया ही था, कि अब उत्तरप्रदेश के देवरिया की घटना ने यह साबित कर दिया है, कि आज के दौर में शासन-व्यवस्था आदि की संस्थाएं सिर्फ़ लोकतंत्र का शोभा बढ़ाने तक ही सीमित रह गई हैं। अगर बात हम देवरिया की संस्था की करें, तो संस्था का नाम विन्ध्वासिनी नारी निकेतन, और वहां का काम मानवता को शर्मसार कर देने वाला ही नहीं, लोकलाज के साथ सरकारी तंत्र की धज्जियां बेचने का कार्य किया। तो अगर ऐसे में सरकारी संरक्षण में चल रहीं संस्थाएं आज के दौर में सफेदपोश के साथ बड़े नामदार लोगों के अय्याशिपन का अड्डा बनते जा रहें। तो क्या निष्कर्ष निकाले, कि सत्ता चाहें सुशासन बाबू के पास हो, या योगी के पास, पर व्यवस्थाएं लचर और लापरवाही भरे रवैये से ही चल रही। जब देवरिया का विन्ध्वासिनी नारी निकेतन बंद करने का आदेश काफ़ी पहले पेश किया जा चुका था। फिर वह किसकी शह पर चल रहा था। यह बड़ा प्रश्न बनकर उभरता है।
3) आंकड़ों में देश के भीतर दुष्कर्म की घटनाएं:-
बालिका संरक्षण गृह में अगर बच्चियां अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए आती हैं। ऐसे में उनका इन संरक्षण गृहों की करतूतों की वजह से वर्तमान ही सुरक्षित नहीं होगा, तो भविष्य कैसा होगा? यह सहज आंकलन किया जा सकता है। किशोरियों के साथ दुष्कर्म की घटनाओं में अभी हाल में लोकसभा में जो बिल पास हुआ है, उसके अनुसार 12 वर्ष से कम वर्ष की बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने पर 20 वर्ष की सज़ा और इसी आयु वर्ग की बच्चियों के साथ सामुहिक दुष्कर्म करने पर जीवनपर्यंत कैद या मृत्यु दंड की सजा का प्रावधान किया गया है। जबकि 16 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुष्कर्म पर आरोपी को लगभग 10 वर्ष की सज़ा का एलान किया गया है। उसके बाद अब अगर सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है। लगता है ऐसी घटनाएं रहनुमाई तंत्र की शह पर हो रहीं, क्योंकि पैसे इन संरक्षण गृह को सरकारें ही उपलब्ध कराती है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने चिंता व्यक्त की, कि अब तो हर जगह दुष्कर्म की घटनाएं हो रही हैं। कोर्ट ने कहा कि साल में दुष्कर्म के 38,947 केस दर्ज किए जाते हैं। यानी हर छह घण्टे में देश में एक महिला से दुष्कर्म हो रहें। ऐसे में अदालत अगर बेबसी और लाचारी भरे शब्दों में कहे, क्या किया जाएं, जब हर जगह महिलाओं और लड़कियों से बलात्कार हो रहा है। तो यह बिगड़ते सामाजिक व्यवस्था की कहानी बयां कर रहीं हैं। जिसे सिर्फ़ कुछ वर्ष की सज़ा या फांसी की सज़ा का ऐलान भर कर देने से रोक पाना सम्भव नहीं।
4) महिलाएं असुरक्षित तो उसका दोषी कौन:-
अगर उत्तर प्रदेश की महिला एवं बाल कल्याण मंत्री रीता बहुगुणा जोशी यह कहती है, कि इन मामलों के लिए दोषी पिछली सरकारें हैं। इसके इतर विपक्ष कहता है, जिन लोगों ने सब कुछ चौपट किया है, वही लोग आज नारी उत्पीड़न के नाम पर या महिला सुरक्षा के नाम पर हाथों में मोमबत्तियां लिए दिखावा कर रहे हैं। इस पर राजनीति कर रहे हैं। तो एक आम नागरिक के दृष्टिकोण से कहना तो इतना ही बनता है, राजनीति चाहे जो करें या जो कहें लेकिन इस आग में झुलस कौन रहा है। समाज की महिलाएं और बच्चियां। इन बच्चियों को अब इन दुश्वारियों और आदम पिशाचों से बचाने की कोशिश करनी होगी। यहां पर एक बात ओर करें, कि ऐसी घटनाओं का कसूरवार कौन है। यह जिम्मेदारी किसी है। तो यह सही है, अगर पुलिस तंत्र ने अपना फ़र्ज़ और कर्तव्य समय पर अदा किया होता, तो इन आश्रय गृहों में बच्चियों को आंसू नहीं बहाने पड़ते। फिर कोई भी सफेदपोश भूख से बिलबिलाती इन बच्चियों से अपनी देह की भूख मिटाने के लिए उनकी तरफ नहीं देखता।
लेकिन क्या करें, जब सरकारें ही मान बैठी है कि पूरा सिस्टम नकारा है, असफल है तो बात आती है कि सिस्टम को नकारा बनाने के लिए जिम्मेदार कौन है? ऐसे में लगता तो यहीं है, इसमें समाज और सियासतदां दोनों की भूमिका है। चुनाव के वक्त जब अपराधियों और बाहुबलियों को चुनाव लड़ने का टिकट दिया जाता है, और हम इन बाहुबलियों के चुनाव-चिह्न के सामने की बटन दबाते हैं। उसी समय इस कहानी की इबारत लिखी जानी शुरू हो जाती है। उदाहरण के तौर पर देखें, तो आज के दौर में हमारे देश में लगभग 1800 के क़रीब सांसद-विधायक आपराधिक प्रवृत्ति के है। वहीं अगर आश्रय गृह में अनैतिक कार्य की चिंगारी जिस बिहार से उठी। वहाँ के 2015 के विधानसभा चुनाव में 3479 उम्मीदवारों में 1043 उम्मीदवार ऐसे थे, जिन पर फौजदारी के मामले चल रहे थे और इनमें से 58 ऐसे लोग चुनकर कर लोकतंत्र के मंदिर तक पहुँचे, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले हैं। वहीं साधु- संतो की नगरी उत्तर प्रदेश की 403 सीटों वाले विधानसभा में 36 फ़ीसद आपराधिक मामले वाले हैं और 27 फ़ीसद ऐसे जिन पर गम्भीर आपराधिक मामले हैं।
फिर समझ नहीं आ रहा कैसा समाज हम बना रहे। ऐसा तो है, नहीं कि जिन तीन जगहों का ज़िक्र हुआ, वहाँ के आस-पास के लोगों के कानों में इन असमाजिक कृत्यों की भनक तक नहीं रही होगी। पर आज हमारा समाज एकांकी दिशा में गति पकड़ लिया है। समाज के लोगों को अपने अधिकारों का भान है, समाज के प्रति उसके क्या कर्तव्य हैं। उसे वह भूल गया है। हम दूसरे से मदद की उम्मीद करते हैं, लेकिन दूसरों के काम नहीं आना चाहते। अगर आस-पास के लोग इन आश्रय गृह के सामने आते और पुलिस प्रशासन पर जोर डालते। तो सफेदपोश और अन्य सभी के सांठ-गांठ का काला- चिठ्ठा कब का खुल जाता। तो ऐसे में अब दोष फिर सियासतदां का ही नहीं, हमारे समाज का भी है। जो अधिकतर सामाजिक बुराइयों के सामने अपनी आँखें बंद करना उचित समझने लगा है। फिर मालूमात तो यही आता है, कि अगर हम समाज की बच्चियों और महिलाओं को बेहतर जीवन देना चाहते हैं, तो अब समाज को प्रखर और मुखर बनना होगा।
नहीं तो रहनुमाई व्यवस्था के भरोसे ज्यादा उम्मीद की नहीं जा सकती, क्योंकि काफ़ी समय पहले ही गुजरात उच्च न्यायालय ने नारी संरक्षण गृहों की बदहाली दूर करने के लिए नई नियमावली बनाने को कहा था। पर वह अमल में आज़तक आ नहीं पाई। फ़िर उम्मीद मत करिए कि हमारे रहनुमा सामाजिक, आर्थिक और अन्य कारणों से बेबस महिलाओं और बच्चियों के लिए कुछ बेहतर कर सकती हैं। हमें अब ख़ुद आगे आना होगा संगठित होकर और अपने समाज की महिला और बेटियों के लिए आकाश तले बेहतर जीवन देने का माहौल बनाना होगा। नहीं तो राजनीति के हैसियतदार को कहीं शर्म आने में लम्बा वक्त लग जाएगा, तो कहीं शुरुआती कार्यवाही भर से सब कुछ ठीक होने का दावा होता रहेगा, और फिर किसी दिन नया देवरिया, मुजफ्फरपुर और भोपाल हमारे सामने होगा। इसके साथ भगवान न करें, कभी कोई अपना इसका शिकार हो जाएं। इसलिए आवाज़ तो हमें बुलन्द करनी होगी आज नहीं तो कल…
पुनश्च:-
भौतिक सुख-सुविधाओं के बढोत्तरी के दौर में आदमी का ईमान और सामाजिकता मर सी गई है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। ऐसे में सिर्फ़ क़ानून को मजबूत करने से शायद बेहतरी की उम्मीद करना मुफ़ीद नहीं लगता। किस-किस क़ानून और सज़ा का ज़िक्र करें। न्यायपालिका क़ानून पे क़ानून बनाती रहती है। फ़िर भी समाज में न अपराध कम होते नज़र आते हैं, और न गैरकानूनी काम। आज के दौर में नैतिकता और सामाजिकता की भावना रसातल में जा चुकी है। एक उदाहरण लेते हैं। बच्चियों के साथ बलात्कार होता है, तो समाज आंदोलित हो उठता है। फांसी की सज़ा की आवाज़ समाज की आबोहवा में गूँज उठती है, लेकिन क्या हमारा समाज कभी यह सोचता है। फांसी की सज़ा किसे और कैसे हो। सरकारी आंकड़े कहते हैं, महिलाओं के साथ ज्यादती के लगभग 90 फ़ीसद से अधिक मामलों में उनके पहचान के लोग ही शामिल होते हैं। फ़िर समाज किसके लिए सज़ा की मांग करता है। तो ऐसे में लगता यहीं है फांसी की सज़ा आदि के बजाय क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम लागू होना चाहिए। इन कुकृत्यों को अंजाम देने वालों को तत्काल मौत नहीं, ऐसी सजा देनी चाहिए। जो उदाहरण साबित हो सके समाज के सामने, क्योंकि फांसी की सज़ा तो बहुत से अपराधों में होती है। पर वह अपराध बन्द हुआ नही न आज़तक।