धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

लघु-ग्रन्थ भ्रान्ति-निवारण में विद्यमान उपयोगी कुछ ऋषि-वचन

ओ३म्

ऋषि दयानन्द ने एक लघु-ग्रन्थ भ्रान्तिनिवारण’ लिखा है। यह लघु-ग्रन्थ ऋषि दयानन्द ने पंडित महेशचन्द्र न्यायरत्न, कलकत्ता की पुस्तक वेदभाष्यपरत्व प्रश्नपुस्तक’ के खण्डन में लिखा था। ऋषि की इस लघु पुस्तक में अनेक महत्वपूर्ण वचन आये हैं जो वैदिक सिद्धान्तों के पोषक एवं उनकी सरल व्याख्या होने सहित तथ्यपूर्ण भी हैं। हमने ऋषि की उपर्युक्त पुस्तक से उनके वचनों का संग्रह किया है। ऋषि वचनों की संख्या अधिक होने के कारण हम इसे दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं। पहला भाग प्रस्तुत है।

1-  मैंने संसार के उपकारार्थ वेदभाष्य के बनाने का आरम्भ किया है कि जो सब प्राचीन ऋषियों की की हुई व्याख्या और अन्य ग्रन्थों के प्रमाणयुक्त बनाया जाता है, जिसमें (ऋषि की) इस बात की साक्षी (देने वाले) वे सब ग्रन्थ आज पर्यन्त वर्तमान हैं।

2-  लोग किसी प्रकार की भ्रान्ति वा शंका मेरे लेख पर होकर वृथा कुतर्क खड़ी करके कोई मनुष्य मेरे काल को न खोवे कि जिससे देशभर की हानि हो और उस को भी कुछ लाभ न हो।

3-  बहुधा संसार में यह उलटी रीति है कि लोग उत्तम कर्म कर चुके और करते हुये (विद्वान लोकहितकारी सज्जन पुरुषों) को देखकर ऐसे प्रसन्न नहीं होते, जैसे कि निषिद्ध कर्म वा हानि को देख होते हैं।

4-  जो मैं निरानिरी संसार ही का भय करता और सर्वज्ञ परमात्मा का कुछ भी नहीं (करता) कि जिसके आधीन मनुष्य के जीवन-मृत्यु और सुख-दुःख हैं, तो मैं भी ऐसे ही अनर्थक वाद-विवादों में मन देता। परन्तु क्या करूं, मैं तो अपना तन, मन, धन सब सत्य के ही प्रकाशनार्थ समर्पण कर चुका (हूं)। मुझ से खुशामद करके अब स्वार्थ का व्यवहार नहीं चल सकता किन्तु संसार को लाभ पहुंचाना ही मुझ को चक्रवर्ती राज्य के तुल्य है।

5-  मैं इस बात को प्रथम ही अच्छे प्रकार जानता था कि न्यारिये के समान बालू से सुवर्ण निकालने वाले चतुर (लोग) कम होंगे किन्तु मलीन मच्छली की तरह निर्मल जल को गदला करने और बिगाड़ने वाले बहुत हैं। परन्तु मैंने इस धर्म-कार्य का सर्वशक्तिमान, सत्यग्राहक और न्याय-सम्बन्धी परमात्मा के शरण में शीश धर के उसी के सहाय के अवलम्बन से आरम्भ किया है।

6-  मैं यह भी जानता था कि (मेरे) इस ग्रन्थ (वेद भाष्य) में जो शंका होगी तो कम विद्वान् (अल्प-विद्वान) और ईर्ष्या करने वालों को होगी। परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि कई विद्वान् भी इसी अन्धकार में फिसल पड़े। (उनसे) इतना न हुआ कि आंख खोलकर अथवा लालटेन लेकर चलें कि जिसमें चाल चूकने पर हंसी और दुःख न हो। यह पूर्व विचार करना बड़े विद्वान अर्थात् दीर्घदृष्टि वाले का काम है, नहीं तो गिरे को लज्जा का फिर क्या ही ठीक है?

7-  (भ्रान्ति-निवारण पुस्तक लिखने का ऋषि दयानन्द ने एक प्रयोजन यह बताया है कि) ईश्वर-कृत सत्य-विद्या की पुस्तक वेदों पर दोष न आवे कि उनमें अनेक परमेश्वर की पूजा पाई जाती है।

8-  यह (व्यर्थ कुतर्कादि का) दोष इस देश में बहुत काल से (चल) पड़ा है। महाभारत युद्ध में जब अच्छे-अच्छे वेद और शास्त्रादिक के जानने वाले पूर्ण विद्वान् चल बसे (तब) विद्या का प्रचार तथा सत्य उपदेश की व्यवस्था छूटकर तमाम देश में नाना प्रकार के विघ्न और उपद्रव उठने लगे। लोगों ने अपना-अपना छप्पर अपने-अपने हाथ से छाने की फिक्र की और इस थोड़े से सुख के लोभ में उत्तम-उत्तम विद्याओं को ऐसा हाथ से खो बैठे कि जिससे उनका विचारा हुआ लाभ भी नष्ट हो गया और तमाम अपने देश को भी धर कर डूबा दिया। बड़े शोक की बात यह है कि आंखों से देखकर भी कूप में गिरना अच्छा समझकर अपनी अज्ञानता पर दुःखी और लज्जावान् होने की जगह भी बराबर हठ ही करते चले जाते हैं। इसका परिणाम न जाने क्या होना है?

9-  आर्यों के बिगाड़ का दूसरा कारण यह भी है कि उनको जैन लोगों ने बहुत कुछ दबाया और (उनके) सत्यग्रन्थों का नाश किया। फिर इन्हीं के समान मुसलमानों ने भी अपने धर्म का पक्ष करके (वैदिक धर्मी आर्यों को) दुःख दिया। और जब से अंग्रेजों ने इस देश में राज किया, तो इन्होंने यह बात बहुत अच्छी की कि सब प्रकार की विद्याओं का प्रचार करके प्रजा को समान दृष्टि से सुधारा। परन्तु कुछ-कुछ निज धर्म का पक्ष करते ही रहे। इससे लोगों का उत्साह भी कमती (न्यून) होता गया। (यदि) आज तक वेदों का प्रचार और सत्य उपदेश का प्रबन्ध ठीक-ठीक होता तो किसी को शंका, भ्रान्ति और हठ (से) वेद के विरुद्ध नवीन व कल्पित मत-मतान्तर (चलाने) का (साहस) न होता जैसा कि (आफीशियेटिंग प्रिंसिपल, संस्कृत कालेज, कलकत्ता) के पण्डित महेशचन्द्र का गुमान है।

10-  परमात्मा की कृपा से मेरा शरीर बना रहा और कुशलता से वह दिन देखने को मिला कि वेदभाष्य सम्पूर्ण हो जावे तो निस्सन्देह इस आर्यावर्त्त देश में सूर्य का सा प्रकाश हो जावेगा कि जिस के मेटने और झांपने (ढांपने) को किसी का सामर्थ्य न होगा। क्योंकि सत्य का मूल ऐसा नहीं (है) कि जिसको कोई सुगमता से उखाड़ सके। और (यदि) कभी भानु के समान ‘ग्रहण’ में भी आ जावे तो थोड़े ही काल में फिर उग्रह अर्थात् निर्मल हो जावेगा।

11-  उन्होंने (पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न ने) ‘हिन्दू’ शब्द कौन से ग्रन्थ (यहां संस्कृत ग्रन्थों से अभिप्राय है) में देखा है? कि जिस के अर्थ गुलाम वा काफिर आदि के हैं और जो कि आर्यावर्तियों को कलंकरूप नाम यवनादिक की ओर से है। और ‘आर्य’ शब्द जिस के अर्थ श्रेष्ठ के हैं, वह वेदों में अनेक ठिकाने (स्थलों पर) मिलता है। सो पण्डित जी नौका में धूर (धूलि) उड़ाते हैं। सो कब हो सकता है? और भूषण को दूषण करके मानते हैं तो माना करो। परन्तु विद्वानों और पूर्ण पण्डितों की ऐसी उल्टी रीति निज धर्म-शास्त्र के विरुद्ध कभी नहीं होगी।

12-  (मैं ऋषि दयानन्द) अपने निश्चय और परीक्षा के अनुसार ऋग्वेद से लेके पूर्वमीमांसा पर्यन्त अनुमान से तीन हजार ग्रन्थों के लगभग (ग्रन्थों को स्वीकार्य वा प्रामाणिक) मानता हूं।

13-  मैं (ऋषि दयानन्द) वेदों में कोई बात युक्ति विरुद्ध वा दोष की नहीं देखता और उन्हीं पर मेरा मत (विश्वास) है सो यह सब भेद मेरे वेदभाष्य में खुलता जायेगा। विद्वानों का यह काम नहीं कि किसी हेतु से सत्य को त्याग के असत्य का ग्रहण करें।

14-         आर्य लोग सनातन (सृष्टि के आरम्भ) से युक्ति प्रमाण-सहित वेदों को बराबर परमेश्वरकृत मानते चले आये हैं। इसका ठीक-ठीक विचार आर्य लोग ही कर सकते हैं। हिन्दू विचारों का क्या ही सामर्थ्य है।

15-  वेदों में यज्ञ आदि करने की आज्ञा है। उस सबको प्रमाण और युक्ति-सिद्ध होने के कारण मैं मानता हूं और सबको अवश्य मानना चाहिये।

16-  (वेदों का) मेरा भाष्य तो नवीन रीति का नहीं ठहर सकता क्योंकि वह प्राचीन सत्य ग्रन्थों के प्रमाणयुक्त बनता है।

17-  भाषा (में वेदार्थ) करने का तो केवल यही तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं है उन्हें बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकेगा।

18-  ईश्वर ने जीवों के हित के लिये वेदों का उपदेश किया है और (वह मनुष्य जीवन में) ठीक-ठीक घट(ता व घट) सकता है।

19-  इस बात का भेद सिवाय अन्तर्यामी परमेश्वर के जीव नहीं जान सकता कि मैं लोकहित चाहता हूं वा केवल विजय अर्थात् नाम की प्रसिद्धि।

20-  वेद, शतपथ और निरुक्त आदि जिन-जिन ग्रन्थों के प्रमाण मैंने वेदभाष्य में लिखे हैं उनको ठीक-ठीक विचारने से आयने (दर्पण) के समान जान पड़ता है कि ‘अग्नि’ शब्द से ‘आग’ और ‘ईश्वर’ दोनों का ग्रहण है।

21-  परमेश्वर के तो असंख्यात नाम हैं और आप क्या चार ही नाम ईश्वर के समझते हैं? (यह प्रश्न ऋषि ने पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न से किया है।)

22-  जब तक सत्य ग्रन्थों और मूल मन्त्रों को न देखें, समझें तब तक वेदमन्त्रों का अभिप्राय ठीक-ठीक जान लेना लड़कों का खिलौना नहीं है।

23-  डाक्टर एम. हाग साहब वा सी.एच. टानी साहब वा आर. ग्रिफिथ साहब आदि कुछ ईश्वर नहीं कि जो कुछ वे लिख चुके, वह विना परीक्षा वा विचार के मान लेने योग्य ठहरे। क्या डाक्टर एम. हाग साहब हमारे आर्य ऋषि-मुनियों से बढ़कर हैं कि जिनको हम सर्वोपरि मान निश्चय कर लें और प्राचीन सत्य ग्रन्थों को छोड़ देवें जैसा कि पंडित (महेशचन्द्र न्यायरत्न) जी ने किया है? जो उन्होंने ऐसा किया तो किया करो, मेरी दृष्टि में तो वे जो कुछ हैं, सो ही हैं।

24-  अग्नि को प्रथम (इस कारण माना है कि) जिन-जिन द्रव्यों का वायु और वृष्टि जल की शुद्धि के लिये अग्नि में होम किया जाता है वे सब परमाणु रूप होकर विष्णु अर्थात् सूर्य के आकार्षण से वायु द्वारा आकाश में चढ़ जाते हैं। फिर मेघमण्डल में जलवृष्टि के साथ उतर कर बाकी जो बीच में 30 देव गिना दिये हैं, उन सभों को लाभ पहुंचाते हैं।

25-  पक्षपात छोड़ के विद्या की आंख से देखने वाले को स्पष्ट मालूम होता है कि निस्सन्देह ‘अग्नि’ ईश्वर का भी नाम है। वेदों में अनेक ईश्वर का विधान कहीं नहीं है।

हम आशा करते हैं ऋषि भक्तों को यह ऋषि वचन पसन्द आयेंगे और वह इन उपयोगी वचनों से लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य