कभी दश्त में हूँ, कभी राहे गुलजार में हूँ।
सूखा पत्ता हूँ, इन हवाओं के ईख्त्यार में हूँ।
ये न समझना के मुझ को पाना है दुश्वार,
जो चाहे खरीद ले। मुझे, अभी बाजार में हूँ।
दिल का सुकुं पाने फिरता हूँ दश्ते गर्दिश में,
पापी पेट की खातिर, मगर दरबार में हूँ।
मैं ही टपकता हूँ बूंद सा टूटे छप्पर से,
मैं कुछ नही, हर मजलूम की पुकार में हूँ।
मैं चला गया तो क्या हुआ, मेरा वज़ूद बाकी है,
रहते हो जहाँ तुम, उसी दर ओ दीवार में हूँ।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”