कब तक भटके परदेश में, घर आए।
जहाज के पंछी आखिर, जहाज पर आए।
कोई बचपन न भटके रोट की तलाश में,
हमारे गाँव में कभी ऐसी भी सहर आए।
हम ने ही कभी उछाले थे इन हवाओं में,
हमारे शीशे के घरों में जो पत्थर आए।
न मिला खरीददार कोई मेरे इमान का,
के तमाम शहर में हम ढूंढ कर आए।
रात के पिछले पहर माँ की याद आई,
कितने ही सपनें पलकों पे उभर आए।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”