आलेख– अटल जी और उत्तर प्रदेश से उनका लगाव
अटल जी भारतीय राजनीति के सूर्य थे। अगर यह उपमा दी जाएं, तो शायद ही किसी का उस पर हस्तपेक्ष हो। ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उनका अमिट व्यक्तित्व ही ऐसा था। जिस पर न सत्तापक्ष कभी अंगुली उठा सका और न विपक्ष। यानि अटल बिहारी जी एक हरदिल अज़ीज राजनीतिज्ञ और क़लमकार थे। उनके इस नश्वर संसार से जाने के बाद हम यह कह सकते हैं, कि भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में मूल्यों, सिद्धान्तों, नैतिकी और शुचिता के महत्वपूर्ण अध्याय का पटाक्षेप हो गया। अगर अटल जी के जाने के बाद हम यह विमर्श करें, कि उन्होंने विरासत में क्या छोड़ा। तो अनगिनत बातों का ज़िक्र होगा, लेकिन ज़िक्र उनकी उस कमाई का। जिसे आज के दरमियां का कोई सियासतदां नहीं अर्जित कर पाता। वह था उनका हर दल के नेताओं के द्वारा आदर-सत्कार प्राप्त होना।
अटल जी देश में सात दशक की राजनीति में पहले और शायद आख़िर ऐसे शख़्स रहें, जिनका कोई खुला विरोधी दृष्टिगत नहीं हुआ। वे अजातशत्रु थे, जिनकी इज़्ज़त सभी सियासतदां करते थे। इसके अलावा बतौर पत्रकार और कवि के रूप में जिस देश और समाज की परिकल्पना की। वैसा देश और समाज बनाने के लिए वे जीवनपर्यंत कार्यरत रहें। दो की संख्या से जो पार्टी अपना उदय देखती है, आज अगर उसी दल की केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार है। तो उसके पीछे कोई शख्सियत खड़ी नज़र आती है। तो वह अटल बिहारी वाजपेयी ही हैं। आज के परिदृश्य में राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में आरएसएस, बीते दौर की जनसंघ और आज की भाजपा को लेकर अनगिनत पहलुओं और नीतियों पर सवालों की लंबी फेहरिस्त खड़ी हो सकती है। पर अटल एक ऐसा चेहरा रहा। जो इन तीनों से व्यापक स्तर पर जुड़ाव रखा, लेकिन अटल जी की शख्सियत और व्यक्तित्व पर कभी किसी ने कोई अंगुली नहीं उठाई।
वे एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे, जो शायद महात्मा गांधी के सपनों के भारत का अभिन्न हिस्सा था। अटल जी के सपनों का भारत ऐसा था, जिसमें ख़ुशहाली हो, न्याय और शोषण के लिए देश के किसी कोने में जगह न हो। इसके साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक समानता हो। आज अगर भाजपा की पूछ देश की सियासत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और उत्तरप्रदेश से लेकर असम तक है, तो उसका पूरा श्रेय अटल जी को जाता है। उन्होंने ही भाजपा के प्रति अल्पसंख्यकों के मन मे व्याप्त शंका को दूर किया। भाजपा के लिए वे पितृपुरुष थे और हमेशा रहेंगे। आज देश के 21 राज्यों में अगर कमल का फूल खिला हुआ है, तो वह अटल जी की देन ही है। भाजपा को यह विराट स्वरूप प्रदान करने में अटल जी का सर्वसमावेशी व्यक्तित्व का अहम योगदान रहा है। वे भले ही पिछले एक दशक से सक्रिय राजनीति का हिस्सा न रहें हो, लेकिन उनके राजनीतिक मूल्यों और आदर्शों को राजनीतिज्ञ आजीवन अपनाते रहेंगे।
1) अटल जी का शुरुआती जीवन और उनका पत्रकारिता से जुड़ाव:-
भारतीय राजनीति का ध्रुव तारा अगर कोई हुआ, तो वह अटल जी ही थे। उन्हें कितने नामों से नवाजा जाएं। कभी-कभार तो यह समझ नहीं पड़ता, क्योंकि इतने बड़े शख्सियत को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। फिर भी कुछ नाम जैसे भारत माँ के सच्चे सपूत, राष्ट्र पुरुष, राष्ट्र मार्गदर्शक, सच्चे देशभक्त, क़लमकार, कवि, पत्रकार, राजनीति के पुरोधा, राजनीति के युग पुरुष। ये कुछ नाम ही कहें जा सकते हैं, क्योंकि उनका व्यक्तित्व भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में इतना बड़ा था कि उसे शब्दों में बंधा नहीं जा सकता। उनकी नीतियां, देश के प्रति उनके विचार इतना सशक्त और मजबूत थे, कि वे सही मायने में भारत रत्न थे। इन सबसे भी बढ़कर पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी एक अच्छे इंसान थे। जिन्होंने जमीन से जुड़े रहकर राजनीति की, और ‘‘जनता के प्रधानमंत्री’’ के रूप में लोगों के दिलों में अपनी एक अलग अमिट छवि निर्मित की।
ऐसे में अगर हम बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर तय करने वाले युग पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्मस्थान का करेंगे। तो पाएंगे उनका जन्म ग्वालियर में बड़े दिन के अवसर पर 25 दिसम्बर 1924 को हुआ। वहीं उनके पिता का नाम पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी और माता का नाम कृष्णा वाजपेयी था। पिता पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर में अध्यापक थे। जो हिन्दी व ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे। अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रखर वक्ता और कवि थे। ये गुण उन्हें उनके पिता से वंशानुगत मिले। अटल बिहारी वाजपेयी जी को स्कूली समय से ही भाषण देने का शोक था और स्कूल में होने वाली वाद-विवाद, काव्य पाठ और भाषण जैसी प्रतियोगिताएं में हमेशा हिस्सा लेते थे। अटल बिहारी वाजपेयी छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में हिस्सा लेते रहे। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने जीवन में पत्रकार के रूप में भी काम किया, और लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
2) कूटनीति, अर्थनीति और विदेश नीति में अटल जी कोई सानी नहीं:-
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। जैसी प्रेरणादायक कविताएं लिखने वाले क़लमकार अटल जी देश के तीन बार प्रधानमंत्री बने। अपने प्रधानमंत्री के काल-खंड में उन्होंने देश से ग़रीबी आदि दूर करने का सार्थक प्रयास किया। तो साथ में देश को विश्व की प्रथम पंक्ति में ख़ड़े देशों के मुक़ाबिल खड़ा करने की बेइंतहा कोशिश की। जिसके लिए उन्होंने पोखरण में परमाणु बम का परीक्षण भी किया। तो साथ में पड़ोसियों से रिश्ते मजबूत करने पर भी बल दिया। इसके साथ उन्होंने देश में चल रहीं जोड़-तोड़ की सियासत पर भी व्यापक प्रतिघात किया, और राजनीति के समकक्ष नए नैतिकी और मूल्यों को रखा। इसके बाद जब वे 1999 से 2004 के दरमियान तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुए, तो देश के बुनियादी ढांचे के विकास के साथ-साथ गरीब-वंचित और शोषितों को मुख्यधारा से जोड़ने में जुट गए। अटल जी अगर राजनीति के ध्रुवतारा हैं। तो यह उपाधि उन्हें ऐसे ही नहीं मिली। वे एक कूटनीतिज्ञ व्यक्तित्व के धनी भी रहें हैं। साथ में उनकी एक बेहतर और स्पष्ट विदेश नीति रहीं है।
तभी तो बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं। टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं, गीत नहीं गाता हूं। लिखने वाले राजनीतिक पुरोधा ने 1977 के दौरान विदेश मंत्री रहते हुए पड़ोसी देशों से मित्रता साधने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। साथ ही साथ प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इस कोशिश को लगातार जारी रखा। यह उनकी उत्कृष्ट कूटनीति का हिस्सा ही था, कि 1971 के बाद भारत-पाक के बिगड़ते रिश्तों के इतर पुनः संबंधों की गाड़ी पटरी पर आती दिखी। साथ में चीन के साथ अगर बेहतरी के सम्बंध दिखे, तो वह भी अटल जी की देन ही रही। ऐसे में समझ नहीं आता। अटल जी को किस साँचे में मापा जाएं। उनकी कश्मीर की नीतियों को लेकर, उनके पोखरण परमाणु परीक्षण की साहसिक नीति को लेकर, उनकी कविताओं को लेकर या फ़िर उनके संवेदनशीलता को लेकर या उनके द्वारा राजनीति को सिखाएं गए राजनीतिक राजधर्म के आधार पर। ऐसे में लगता यहीं है, जिस शख्सियत के धनी वे थे। ऐसा कोई एक व्यक्ति एक सदी में विरले ही पैदा होता है। बाजपेयी जी की कूटनीति और विदेश नीति कितनी सशक्त और अडिग थी। इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है, कि कश्मीर नीति पर अलगाववादी नेता भी उनके मुरीद हो जाते हैं और तो और जब वे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जाते हैं। तो नवाज़ शरीफ़ यह कहते हैं, कि आप अगर पाकिस्तान में भी चुनाव लड़े। तो जीत सकते हैं। मतलब अटल जी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्हें देश उनके व्यक्तित्व और नीतियों के कारण स्नेह और प्यार तो करता ही था। इसके अलावा विदेशों में भी उनकी काफ़ी पूछ थी।
जिस उदारीकरण की नीतियों की वज़ह से आज देश तरक़्क़ी के नए आयाम लिख रहा, उसको आगे अटल जी ने अपने सहयोगियों के विरोध के बाद भी बढ़ाया था। इसके अलावा अर्थव्यवस्था को गति देने वाली प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना को धार देने का काम भी अटल जी ने ही किया। लाहौर तक बस सेवा आदि अटल जी की ही देन रही। अब हम अगर यह मानते हैं, कि देश में आर्थिक सुधारों की बहार 1991 में शुरू हुई। तो अटल जी का प्रधानमंत्री काल उसे खाद और पानी देने वाला साबित हुआ।उनके दूसरे कार्यकाल में पोखरण में परमाणु परीक्षण देश के लिए मील का पत्थर बना। जिससे देश का आत्मबल और मनोबल बढ़ा, कि हम भी वैश्विक परिदृश्य पर कुछ हैं। यहां पर अगर बात अटल जी की कूटनीतिज्ञ और विदेश नीति में सफ़ल होने के साथ उनके समय पर मजबूत अर्थनीति की निकल ही गई है। तो हमें यह भी पता होना चाहिए, कि सच यह है कि एक राष्ट्र, एक कर की अवधारणा पर शुरुआती काम अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल खंड में ही हुआ था। इसके अलावा चंद्रयान-1 प्रोजेक्ट जिसे बाद में मंगल मिशन घोषित किया गया। वह भी उनके कार्यकाल की देन है। साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सर्व शिक्षा अभियान को वर्ष 2001 में उनके कालखंड में ही लॉन्च किया गया था। जिसका उद्देश्य 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देनी थी। ऐसे में कुल-मिलाकर देखा जाएं तो अटल जी हर मायने में खरे उतरने वाले व्यक्तित्व के धनी थे।
3) उत्तरप्रदेश और लखनऊ से अटल जी का अमिट लगाव:-
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर, अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं, गीत नहीं गाता हूं। पंक्ति के रचयिता, राष्ट्र की एक अनमोल धरोहर तुल्य, राजनीति को राजधर्म का पाठ सिखाने वाले अटल जी का रिश्ता सन्तों-महात्माओं की पावन भूमि से अमिट, अशेष और निराला रहा है। इतना ही नहीं वैसे पूरे उत्तरप्रदेश से उनका लगाव रहा, लेकिन नवाबों के शहर लखनऊ से राजनीति के युगपुरुष का कुछ अलग और संजीदा लगाव रहा। ऐसा माना जाता है, कि उत्तर प्रदेश की राजधानी और नवाबी शहर लखनऊ के अटल बिहारी वाजपेयी से रिश्ता सात दशक पुराना रहा है। यहां की गलियां, चौराहे, सत्ता के गलियारे अटल की सभाओं, बैठकी, आवाजाही के गवाह रहे हैं।
इसके अलावा माइक लेकर अकेले ही अमीनाबाद के झंडे वाले पार्क में भीड़ को संबोधित करते दिखते थे अटल जी। तो कभी चौक की प्रसिद्ध राजा ठंडई की दुकान पर साथियों के साथ देर शाम बैठकी करते। बहरहाल अटल जी 1947 में ग्वालियर से लखनऊ आते हैं। फिर यहीं से पत्रकारिता शुरू करते हैं। आगे चलकर राजनेता बनते हैं, और धीरे-धीरे जिस भूमि पर साक्षात ईश्वर ने मानव रूप में जन्म लिया। उसी धरा को राजनीति का पितामह अपनी कर्मभूमि बना लेता है।
ऐसे में हम बात अगर यह अटल जी और नवाबी शहर लखनऊ की कर रहें। तो भले अब अटल जी शून्य में लीन हो गए हैं, लेकिन लखनऊ से उनका कई क़िस्म का दिलचस्प रिश्ता रहा है। एक पत्रकार के रूप में, एक कवि के रूप में उनका रिश्ता तो नवाबों के शहर से था ही। साथ ही साथ एक सांसद के रूप में, देश के प्रधानमंत्री के तौर पर, अटल जी लखनऊ से एक-दो नहीं, लगातार पांच बार संसद का प्रतिनिधित्व किया। यहां एक बात गौर करने लायक यह भी है, कि उनका रिश्ता सिर्फ़ लोकतंत्र देश में स्थापित होने के बाद लखनऊ से नहीं जुड़ा, बल्कि उससे पहले से ही उनका जुड़ाव लखनऊ से था। बात 1947 के दरमियां की है। जब भाऊराव देवरस उत्तरप्रदेश के प्रांत प्रचारक थे, और दीनदयाल उपाध्याय संघ के सह प्रांत प्रचारक हुए। उस समय आरएसएस के कार्यक्रमों में अटल बिहारी वाजपेयी कविता पाठ किया करते थे।
4) उत्तर प्रदेश की राजनीति से अटल जी का गहरा लगाव:-
उत्तर प्रदेश से अटल जी का गहरा रिश्ता रहा है और इसी राज्य को उनकी कर्मभूमि कहा जाता है। वह लखनऊ से सांसद बनने के बाद ही देश के प्रधानमंत्री बनते हैं। जब तक राजनीति में सक्रिय रहे लखनऊ से ही सांसद रहे। यूपी में बीजेपी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में वाजपेयी जी का अहम योगदान है। यूपी की राजधानी के अलावा कानपुर, बलरामपुर, आगरा और मथुरा से भी उनका रिश्ता रहा है। उन्होंने कानपुर से पढ़ाई की, और बाकी जगहों से वह राजनीतिक रुप से सक्रिय रहे। लखनऊ से अटल जी 1991 से लेकर 2009 तक सांसद रहते हैं। ऐसे में हम देखते हैं, कि अटल जी की राजनीतिक पारी की शुरुआत भी लखनऊ से ही उस दरमियान शुरू होती है। जब 1954 में लखनऊ की सांसद विजय लक्ष्मी पंडित को संयुक्त राष्ट्र में भारत का राजदूत बनाकर भेज दिया जाता है। ऐसे में उपचुनाव में अटल जी लखनऊ सीट से जनसंघ के प्रत्याशी बनकर राजनीति के अखाड़े में क़दम रखते हैं। उस चुनाव में उन्हें कांग्रेस के एसआर नेहरू से हार का सामना करना पड़ता है। तब शायद किसी को पता न रहा होगा, या अनुमान भी नहीं लगाया होगा, कि राजनीति में अटल जी लम्बी रेस के खिलाड़ी साबित होंगे। पर नियति ने तो अटल जी के लिए कुछ बेहतर और सकारात्मक सोच रखा था।
अपने राजनीतिक भविष्य के कुछ समय में ही अटल जी के सामने ऐसा समय भी आता है, जब वे उत्तरप्रदेश की तीन सीटों यानि लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ते हैं। ऐसे में पहली मर्तबा उन्हें जीत का सुख बलरामपुर सीट से मिलता है। उसके बाद से राजनीति में तो जैसे उनके हिस्से का दिन शुरू हो जाता है। फिर भी अटल जी लखनऊ से दो बार गच्चा खाने के बाद नवाबों के शहर से लम्बे अरसे के लिए दूरी बना लेते हैं। इसके बाद पुनः 1991 के चुनाव में लखनऊ इस बयान के साथ लौटते हैं, कि आप लोगों ने क्या सोचा था, मुझसे पीछा छूट जाएगा। तो मैं बता दूं, यह होने वाला नहीं। मेरो मन अनत कहां सुख पावे, लखनऊ मेरा घर है। इतनी आसानी से मुझसे रिश्ता नहीं तोड़ सकते। मेरा नाम भी अटल है, देखता हूं कि कब तक मुझे सांसद नहीं बनाओगे। इस बार नवाबों के शहर की अवाम उन्हें भारी बहुमत के साथ लोकतंत्र के मंदिर में भेजती है। फिर इसके बाद 1996 के चुनाव में जीत के साथ अटल जी देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचते हैं।
ऐसे में शैने-शैने एक समय यह भी आ जाता है। जब लखनऊ इज अटल, अटल इज लखनऊ का नारा राजनीतिक सरगर्मियों में गूँजने लगता है। इसके साथ स्थितियां तो ऐसी निर्मित हो जाती है, कि अटल जी के लिए लखनऊ के मायने कुछ ऐसे ही हो जाते हैं, जैसे गांधी परिवार के लिए रायबरेली। ऐसे में 1991 में अटल जी और नवाबो के शहर में शुरू हुई यारी-न्यारी 2009 तक चलती रही। उसके बाद 2009 में लखनऊ से प्रत्याशी बनते हैं, अटल जी के सहयोगी लालजी टण्डन जो भी चुनाव में विजयी रहते हैं। उत्तर प्रदेश में मुरली मनोहर जोशी, लालजी टण्डन और राजनाथ सिंह जैसे भाजपा के कद्दावर नेता अटल जी के सानिध्य में ही रहकर भाजपा को प्रदेश के साथ देश में नए मुकाम तक ले जाने के साथी बनें।
ऐसे में यूं तो अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीतिक पटल पर एक ऐसा नाम है, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से न केवल व्यापक जन स्वीकार्यता और सम्मान हासिल किया, बल्कि तमाम बाधाओं को पार करते हुए 90 के दशक में भाजपा को स्थापित करने में भी अहम भूमिका अदा की। यह अटल जी का ही व्यक्तित्व और स्वच्छ, साफ़-सुथरी राजनीतिक छवि का कमाल था, कि उस दौर में भाजपा के साथ नए सहयोगी दल जुड़ते गए। इसके साथ अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को व्यापक फ़लक दिलाने का कार्य किसी ने किया, तो उसमें अटल जी अग्रणीय हैं।
5) पुनश्चः:-
वैसे अटल जी के व्यक्तित्व को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। फिर भी आख़िर में कुछ बातें और वाक़ये का ज़िक्र करते हुए इस आलेख का अंत करना होगा। तो पहली बात यह, कि जिस तरीक़े से अटल जी ने असहमति का स्वर होने के बाद भी सहमति बना कर सत्ता चलाई । वह आज की राजनीति को आईना दिखाने का काम करती है। वैसे भी वे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे, तभी तो संसद में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर जवाहरलाल नेहरू ने अटल जी में भावी देश के प्रधानमंत्री का अक्स देख लिया था। इन सब से इतर सम्वेदना और मानवतावादी दृष्टिकोण तो उनके व्यक्तित्व में रचा-बसा था, तभी तो जब वे 2003 में आतंकवाद प्रभावित जम्मू-कश्मीर में पहुँचते हैं, तो संविधान से इतर जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत की बात करते हैं। ऐसे में यहीं कह सकते हैं, कि अटल एक ऐसा व्यक्तित्व रहा, जिसने सामाजिक और राजनीतिक हर क्षेत्र में जमकर कठिनाईयों का सामना किया। ऐसे में मौत तो अटल सत्य है। जिसका सामना अटल जी को भी करना पड़ा, लेकिन उनका यश, कृति, विचार और व्यक्तित्व सदैव के लिए अटल और अमर हो गया, और अटल जी के जाने के बाद भारतीय राजनीति के एक युग का अवसान हो गया। सार्वजनिक जीवन और राजनीति में एक शून्यकाल उपज गया है अटल जी के इस नश्वर संसार से जाने के बाद। जिसे निकट भविष्य में भरा नहीं जा सकता, लेकिन जो वसूल और नीति अटल जी छोड़कर गए हैं। वह वर्षों तक भूली नहीं जा सकती। अंत में बस अटल जी की कुछ पंक्तियों के सहारे आपको छोड़ जाता हूँ-
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।