कविता – कोरे पन्ने
कुछ दिनों से ये दिल
कुछ कहता है न सुनता है
सुस्त सुस्त सी लेखनी
किसी कोने से चुपचाप
बाट जोहती है
कोरे कोरे से पन्नों की
फड़फड़ाहट भी
सुनाई नहीं देती आजकल
मन उलझा है उलझनों में
भटकी हुई है राहें भी
किस ओर जाना है
सूझती नहीं राहें भी
ऐसे में राह दिखाए कोई
जीने की चाह जगाए कोई
फिर जागे अरमान कोई
जीने का हो सामान कोई
गूंज उठें स्वर जागे लेखनी
चल पड़े रुकी सी राहें
रंगीं हों कोरे से पन्ने
— लीना खत्री