छंद – हरिगीतिका (मात्रिक) मुक्तक, मापनी – 2212 2212 2212 2212
फैले हुए आकाश में छाई हुई है बादरी।
कुछ भी नजर आता नहीं गाती अनारी साँवरी।
क्यों छुप गई है ओट लेकर आज तू अपने महल-
अब क्या हुआ का-जल बिना किसकी चली है नाव री॥-1
क्यों उठ रही है रूप लेकर आज मन में भाँवरी।
क्यों डूबने को हरघड़ी तैयार रहती गागरी।
अब क्या हुआ कुछ तो कहो आकर उलझती डोर में।
कुछ तो नहीं है पास मेरे मनन कर ले बाँवरी॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी