“कजरी का धीरज” लघुकथा
लीलाधारी प्रभु कृष्ण जन्माष्टमी के परम पावन पुनीत अवसर पर आप सभी महानुभावों को हार्दिक बधाई!
कजरी की शादी बड़ी धूम-धाम से हुई पर कुछ आपसी अनिच्छ्नीय विवादों में रिश्तों का तनाव इतना बढ़ा कि उसके ससुराल वालों ने आवागमन के सारे संबंध ही तोड़ लिए और कजरी अपनी ससुराल की चाहरदीवारों में सिमट कर रह गई। देखते- देखते दस वर्ष का लंबा समय निकल गया और कजरी अपने मायके का मुंह न देख पायी। उसके माँ-बाप और भाइयों ने कई बार होली-दिवाली और राखी के अवसर पर, बेटी के लिए अपने मान-सम्मान को भुलाकर उसके ससुराल के दरवाजे पर अनुनय की दस्तक तो दी पर हर बार बे-इज्जत होकर लौट जाने को मजबूर हो गए और कजरी अपने अरमानों को लिए कुढ़ती रही और एक फोन के लिए तरसती रही जो आज के समय में एक अदना आदमी के लिए भी अस्पृश्य नहीं है।
खैर, समय किसी का इंतजार नहीं करता, धीरे-धीर परिस्थिति सामान्य हुई और धीरज का फल मिलना ही था जिसे कोई भी रोक पाने में सक्षम नहीं होता है। तमाम बंदिशों के वावजूद कजरी के पाँव जब आजाद होकर अपने मायके के सिवान में बिना किसी औपचारिक पद-चाप के दाखिल हुए तो गाँव की प्रतीक्षारत आँखें खुशी से झूम उठी और मां की बे-बस आँखेँ, पिता का बैठा हुआ दिल और भाई की फड़कती कलाई के हक की राखी कुछ यूँ मुस्कुरा रही थी मानों सत्य की विजय हो गई । वर्षो का सूना आँगन गुलजार हो गया और कजरी के दो नन्हें बच्चे नाना-नानी की गोद में छलकने लगे मानो बंधिता अपने भाई की कलाई पकड़कर आजाद हो गई। दो दिन बाद ही उसे पुनः अपने ससुराल भी लौटना था पर उसने अपनी सासू माँ से कृष्ण जन्माष्टमी तक रुकने के लिए अपील किया और उसके पेरोल की मिंयाद मंजूर हो गई फिर क्या आज अपने लड्डू गोपाल को झूला झुलाए जा रही है और सखियों संग कजरी, कीर्तन इत्यादि के साथ अपने बचपन की गलियों से मिलकर सारे गम को भूल गयी है। गोविंद बोलो हरि गोपाल बोलो…….!
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी