ग़ज़ल – जवानी जो आई बचपन की हुड़दंगी चली गई
जवानी जो आई बचपन की हुड़दंगी चली गई
दफ़्तरी से हुए वाबस्ता१ तो आवारगी चली गई
शौक़ अब रहे न कोई ज़िंदगी की भागदौड़ में
दुनियाँ के दस्तूर२ में मिरि कुशादगी३ चली गई
ज़िम्मेदारियों का वज़न ज्यूँ बढ़ता चला गया
ईमान पीछे छूट गया और शर्मिंदगी चली गई
भागते भागते दौलतें न बटोर सके ज़माने की
मुड़के देखता हूँ तो लगता है ज़िंदगी चली गई
ज़िंदगी भर ईसार४ कैसे करें इस सख़्त जहाँ में
लगता था बुरा ‘राहत’ अब संजीदगी चली गई
डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’
०४/०९/२०१८
शब्दार्थ:
१. वाबस्ता – संबंधित/परिचित होना, जुड़ना २. दस्तूर – प्रथा, रीति ३. कुशादगी – खुलापन, प्रसन्नता ४. ईसार – त्याग