ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट का बहु प्रतीक्षित आदेश देश मे कुछ लोगो को राहत दिया तो एक नई बहस को जन्म भी दे दिया।
समलैंगिकता पर जोर देने वाले लोग बहुत कम है किंतु समाज मे ऐसे लोगो को अच्छी निगाह से नही देखा जाता है। न्यायालय की अपनी सीमा है ।उसी परिधि में रहकर न्याय दे पाना अपेक्षित है।इस फैसलें को गलत ठहराने वालों का मानना है कि सृष्टि का नियम महिला पुरुष से चलता है न कि महिला महिला से अथवा पुरुष पुरूष से.सुप्रीमकोर्ट के इस एतिहासिक फैसले को समाज कितना मानेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल है क्यों कि समाज की दकियानूसी विचारधारा किसी कानून या उचित अनुचित को नहीं मानती है. धारा 377 को मनमाना करार बताते हुए हजारों वर्षो बाद हीन भावना में जी रहे समलैंगिकता के कृत्य को अपराध की श्रेणी से अलग कर दिया गया .सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिक दीपक मिश्रा की पाँच सदस्सीय जजों की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हर किसी को अपनी जिन्दगी अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है. मै जैसा हूँ मुझे वैसा ही स्वीकार किया जाए.देश मैं सबको समानता और सम्मान से जीने का अधिकार है. कुछ लोग समाज का बहिष्कार झेलते है जिनको सुधारना जरूरी है.10 जुलाई को सुनवाई शुरू की गई थी. 17 जुलाई को शीर्ष कोर्ट ने 4 दिन की सुनवाई के बाद ये फैसला सुरक्षित कर लिया था
हम सभी जानते है कि महिला और पुरुष एक दूसरे के पूरक होते है. दोनों के बीच उत्पन्न शारीरिक संबंध एक नए जीवन को जन्म देते है. जिसे समाज और परिवार सिर्फ तभी अपनाता है जब वो विवाहित हो.यूँ तो महिला पुरुष आकर्षणएक सामान्य घटना है.आप्रक्रतिक शारीरिक संबन्धों को हम आधुनिक होने के बाद भी स्वीकार नहीं कर पाते है. और कही न कही पाश्चात्य सभ्यता की देन मानने लगते है. जबकि प्राचीन काल के तथ्य बताते है कि जब आदिम युग में समाज सभ्यता जैसी कोई चीज नहीं थी.तब समलैंगिक संबंध एक सामानंय प्रक्रिया समझी जाती थी. 5000 वर्ष पहले ये संबंध खुले तौर पर अपनाए जाते थे. प्राचीन यूनान में इसको एक कला बौधिकता की गुण समझा जाता था. यहाँ तक कि प्राचीन यूनान के देवता होरेस और सेठ को भी ‘गेे’ कहा जाता था पुनर्जागरण काल के लोग भी इसे निःसंकोच स्वीकार करते थे. इतना ही नहीं खजुराहो और ओडिशा की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियों में खुली सोच का साफ उजागर है.
शारीरिक संबन्धों के छेत्र में मनोवैज्ञानिक लोंगों का कहना है कि यह बेहद सामान्य सी प्रक्रिया है.जो इंसान से लेकर जानवरों तक में पाई जाती है. प्रख्यात शोधकर्ता और विशेषज्ञ जी हैमिलटन का कहना है कि युवाकाल में बंदर और चेम्पेजी अपने समलिंगी साथी के प्रति आकर्षित होकर सम्बन्ध स्थापित करते थे.वर्ष 1914 मैगनस हर्शफील्ड की पुस्तक ‘फीचर होमोसेक्सुअलिटी’ प्रकाशित हुई थी जिसमें दो पुरुषो की कहानी थी जो शारीरिक आकर्षण रखते थे. उस समय इस किताव को समलैंगिकता की एंसाइक्लोपीडिया कहा जाता था. वात्सायन और कामसूत्र में ये प्रमाणित है कि प्राचीन भारत में समलैंगिक संबंध मैजूद थे. हालाकि इन संबन्धों से स्वास्थ्य के प्रति संकट भी दर्शाया गया है.
समानता और निजता का अधिकार तो सभी मानव जाति पर लागू होता है.ये न तो किसी विशेष समाज को अलग करता है न ही किसी विशेष समाज के लिए बना है. विचानणीय है कि क्या किसी भी मनुष्य को जन्म लेने से पहले पता होता है कि उसका लिंगभेद क्या है.वो इस समाज में रहने योग्य है कि नहीं.
2013 में जस्टिस सिंघवी ने बिलम्बित फैसले में कहा था कि इस कानून के दुरुपयोग से सिर्फ 200 लोंगो के पीड़ित होने का आँकड़ा है और ये राष्ट्रीय समस्या नहीं है. क्या 200 लोगो की जान का कोई मोल नहीं होता है. दस साल से उम्र कैद से लेकर ईरान,सऊदी अरब और सूडान जैसे देशों में म्रत्युदण्ड का प्रावधान है. जब कि प्राचीन साक्ष इसके विपरीत दर्शाते है.
खुद पोप कह चुके है कि समलैंगिक भी उसी ईश्वर की संतान है जिसे हम पूजते है. इसलिये इनके प्रति भेदभाव नहीं बरता जाना चाहिए. 21वीं सदीं के पहले चरण में वैग्यानिक शोध यह बात अकाट्य रूप से प्रमाणित कर चुके है कि समलैंगिकता रोग या मानसिक विक्रति नहीं है और इसे अप्राक्रतिक भी नहीं कहा जा सकता है.इस एतिहासिक फैसले से समलैंगिक समाज में खुशी की लहर है.पूरा एलजीबीटी समास जश्न मना रहा है.
— नीरू “निराली”
सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो भी हो लेकिन समलैंगिकता वास्तव में एक मानसिक विकार है और पूरी तरह अप्राकृतिक है. फिर भी इस पर आपको अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता है.