कैसे कहें कि वे आवारा हैं…
मैं आज तक यह समझ नहीं पाया हूँ कि हसरत जयपुरी साहब ने आवारा फिल्म के लिए यह गीत क्यूँ लिखा और किसके लिए लिखा।ठीक है सड़क पर घुमते फिरते बेफिक्री के अंदाज में नायक गा लेता है- “आवारा हूँ,आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ,घरबार नहीं, संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं”लेकिन हमें तो बचपन से ही घर वालों के ताने सुनने को मिलते रहे कि कहाँ आवारागर्दी करने गये थे!या फिर कब तक आवारागर्दी करते रहोगे या फिर कि काम धाम भी करोगे या जिन्दगी भर ऐसे ही निठल्ले बनकर आवारगी करते रहोगे।जहाँ घर वालों का इतना नियंत्रण और पूछताछ वहाँ आदमी कैसे आवारा हो सकता है।
हाँ,जिन्हें छुट्टे सांड की माफिक खुला छोड़ दिया हो,आवारागर्दी तो वही कर सकता है और फिर छुट्टे सांडों के लिए आज के दौर में स्कोप भी तो बहुत है।जो लोग परिवार के कन्ट्रोल में रह जाते हैं उनके लिए निकृष्ट चाकरी का योग बन जाता है और जो स्वच्छंद और उच्छृंखल बने रहकर आवारा का खिताब पाकर मनमाना जीवन जीते हैं उनका राजयोग प्रबल हो जाता है।वे राजधानी तक पहुँच जाते हैं।
खैर,आवारगी अनियंत्रित होने का नाम है या खुला छोड़ दिये जाने का नाम है! सोचता हूँ कि यह आवारापन है क्या बला !आवारा का मतलब तो निकम्मा,निठल्ला और निरर्थक इधर-उधर घुमने से है यानी जिसका स्वभाव ही घुमन्तू हो और यायावर सी जिन्दगी हो लेकिन अपने नसीब में कहाँ यायावरपन!अपुन तो खुंटे से बंधे आदमी हैं ठीक उसी तरह जैसे दूध दुहने के बाद ढ़ोर-डंकर को उनके मालिक सड़क-चौराहों पर खुला छोड़ देते हैं।
लोगों को इस बात से तकलीफ है कि सार्वजनिक स्थान पर खुले में विचरण कर रहे पशु इधर-उधर मुँह मारते हैं लेकिन बेचारे इन मवेशियों का क्या कसूर है।वे अपनी इच्छा से तो आवारगी करने निकलते नहीं है।यदि पनाहगार ने ही उन्हें अपना स्वार्थ पूरा कर खुली हवा में विचरण करने छोड़ दिया है तो उन्हें जहाँ जगह मिलेगी वहीं तो वे आराम फरमायेंगे।चाहे सड़क हो,गली हो या चौराहा और या फिर राजमार्ग ही क्यों न हो।वे तो अपनी शान से या फिर कहें अपनी मजबूरी में धरना देकर बैठे रहते हैं जिनको बचकर निकलना है वे बचकर निकल जाएं और जिनको ठोककर निकलना है वे ठोककर निकल जाएं, अपनी बला से।अब इन आवारा पशुओं को बचाने के लिए इनके गले और सींग पर रेडियम लगा रहे हैं लेकिन बेचारे खुद कहाँ आवारगी के लिए निकले हैं।जिन्होंने इन्हें आवारा बना दिया या जिनके कारण ये सड़कों, गलियों और चौराहों पर दर-दर भटक रहे हैं, उनका क्या!ये बेचारे मूक पशु भी कहते होंगे कि कौन सा हमें शौक है जो इस तरह मारे-मारे फिरें।आवारा यानी निकम्मा या निठल्ला लेकिन उनका तो गोबर और मूत्र भी बहुउपयोगी है।हाँ, उन्हें आवारा छोड़ने वाले जरूर निकम्मे हैं।
अंत में एक ओर विचार,जिनके पास रोजगार नहीं है और जिन्हें आवारा करार दे दिया जाता है, उनके बारे में केवल एक ही बात कि रोजगार करना उनके हाथ में है लेकिन रोजगार देना!फिर कौन हुआ निकम्मा!चलिये फिर गुनगुनाएँ- “आवारा हूँ,आवारा हूँ,या गर्दिश में हूँ,आसमान का तारा हूँ।”