थरथराहट
जब भी गुजरता हूँ पुल पर से
थरथराहट सी होती है
देखा है मैंने
जितना मैं थरथराता हूँ
उतना ही थर्रा जाता है
पुल भी
उसे भी भरोसा नहीं है
अपने रचनाकार पर
मुझे भी अब नहीं रहा
क्योंकि
उस ऊपर वाले
रचनाकार का कोई पता भी नहीं है
न ही किसी ने उसे देखा है
पुल की और मेरी
थरथराहट एक जैसी ही है
भरोसे पर ही पुल भी खड़ा है
और हम भी अपनी आस्था पर
जब भी मैं या कोई और
गुजरता है पुल पर से
गुजर जाने पर
राहत की साँस लेते हैं
शुक्रगुज़ार होकर
दोनों ही
क्योंकि
दोनों ही भरोसेमंद होकर भी
डरते हैं अपने रचनाकार से।