कलयुगी दर्द!!
दीवाने से ये मत पूछो ,ये क्या दर्द छुपाये बैठा है ।
तन -मन सब विह्वल है ,तो मन मुरझाये बैठा है ।।
हंसी नहीं है ख़ुशी नहीं है ,
जहां भी देखू ,कंही नहीं है ,
मुख पर ताले अग्नि सिने में ,दफ़न पड़ी है बैठा है ।
कंस नहीं सुनता संतो की ,जंजीर बाँधकर बैठा है ।।
गलियों में सन्नाटा लगता ,
जिसको देखो ,वही अकड़ता ,
कैसे सम्हले नारी सीता ,रावण घात लगाए बैठा है ।
कांडा ,मदेरणा ,तिवारी कुकर्मी ,जुल्म बनाए बैठा है ।।
मर्यादा सब टूट रही है ,
अपनी किस्मत फुट रही है ,
साधू संत अपमानित है अब ,मौन ही मोहन बैठा है ।
उजियारे की अब आस लगाए , ‘हृदय’ कब से बैठा है ।।
हृदय जौनपुरी ।।