राजनीति

लोकतन्त्र में विरोध का अधिकार

इस समय विरोध के अधिकार पर बहस जारी है, जिसे पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज डी.वाई. चन्द्रचूड़ की इस टिप्पणी ने और हवा दी है कि लोकतन्त्र में विरोध सेफ़्टी वाल्व का काम करता है। अगर उसे इस्तेमाल नहीं करने दिया गया तो कूकर फट जाएगा। यह टिप्पणी हाल ही के सबसे चर्चित विवादित उन पांच शहरी नक्सलियों की गिरफ़्तारी के संबन्ध में है जिन्हें पुलिस ने देशद्रोहियों की मदद के आरोप में गिरफ़्तार किया। इस समय ये घर में नज़रबन्द हैं।
हमारा संविधान जाति, नस्ल आदि के भेदभावों से ऊपर उठकर सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, परन्तु भारत में जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है, इस अधिकार का जितना दुरुपयोग होता है, शायद विश्व के किसी कोने में नहीं होता होगा। सुप्रीम कोर्ट भी अभिव्यक्ति की आज़ादी की वकालत तो करता है, लेकिन नागरिकों के कर्त्तव्य पर मौन साध लेता है। सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने आदेश से विरोध के रूप में किसी तरह के बन्द और सड़क जाम पर प्रतिबन्ध लगा रखा है, लेकिन उस आदेश की रोज ही धज्जियां उड़ाई जाती हैं और सुप्रीम कोर्ट कोई संज्ञान नहीं लेता। बन्द के दौरान की गई हिंसा और माब लिंचिंग में कोई अन्तर नहीं है। माब लिंचिंग पर तो सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान ले लेता है और निन्दा के अलावे कार्यवाही भी करता है, पर बन्द के लिए उन तत्त्वों और राजनीतिक पार्टियों पर न तो कोई कार्यवाही करता है और न निन्दा करता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले, नारे लगाने वालों और समाज को बांटने की कोशिश करनेवालों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। इस समय समाज को बांटने वाले और सामाजिक समरसता को तार-तार करनेवाले संगठन और नेता कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। जब भी सरकार इनके पर कतरने की कोशिश करती है, न्यायपालिका आड़े आ जाती है। क्या कश्मीर के आतंकवादियों और नक्सलवादियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर खुली छूट दी जा सकती है? क्या देश की एकता और अखंडता से समझौता किया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट और सत्ता गंवाने के बाद विक्षिप्त हुई पार्टियों और नेताओं को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
देश की आज़ादी की लंबी लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने कभी बन्द का आह्वान नहीं किया। एक बार असहयोग आन्दोलन के दौरान भीड़ ने जब चौराचौरी थाने पर कब्जा करके कई पुलिस वालों को ज़िन्दा जला दिया था, तो गांधीजी ने आन्दोलन ही वापस ले लिया। क्या ऐसी नैतिकता कोई भी राजनीतिक पार्टी दिखा सकती है? भारत में बन्द कम्युनिस्ट पार्टी की देन है। यह विचारधारा तो पूरे विश्व में आज मृतप्राय है, लेकिन इसकी गलत आदत सबसे ज्यादा भारत की जनता को लग गई है। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की यह एकमात्र सफलता है जो नासूर का रूप धारण करता जा रहा है। अमेरिका में भी ट्रंप के विरोधी कम संख्या में नहीं हैं, लेकिन कभी किसी ने अमेरिका बन्द या विरोध के नाम पर उग्र हिंसा या तोड़फोड़ की खबरें नहीं पढ़ी होगी। कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्या अपना देश और अपनी जनता लोकतन्त्र का मतलब भी समझती है? छोटी-छोटी बातों के लिए आपस में उलझना और राष्ट्रीय संपत्ति को शत्रु की संपत्ति की तरह नष्ट कर देना अत्यधिक चिन्तनीय है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अराजकता का रूप लेती जा रही है जिसे न कानून मान्यता देता है और न हमारा संविधान। लोकतन्त्र का भीड़तन्त्र का रूप लेते जाना कही इस मुहावरे को चरितार्थ तो नहीं कर रहा है — बन्दर के हाथ में उस्तरा।

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.