मातृभाषा हिन्दी
खिलखिलाती हंसती जाती,
गीत गति के गढ़ती जाती ।
अनेक विधाएं अदब की इसमें,
और हमेशा बढ़ती जाती ।।
देषी-विदेशी शब्दों को भी,
उर्दु जैसे अरबों को भी,
बाहर से आये हर आखर को,
अपने अन्दर लेती जाती ।
बोलने वाले लाख करोड़ों,
मुडती चाहे जैसे मोड़ों,
सागर से भी गहरी हिन्दी,
गर्व जताते हिन्दी भाषी ।
भय नही किसी और से हमको,
दुश्मी गोरे चोर से हमको ,
नव अदब को हरपल हरक्षण,
मातृभाषा गढ़ती जाती ।
हिन्दी हमको जान से प्यारी,
जोर लगा ले दुनिया सारी,
मां के हम जो लाल खड़े है,
और खुबियां आती जाती ।
हिन्दी के संग चलना होगा,
मिली मुसीबत दलना होगा,
घर के भेदी जब तक जिन्दा,
नित्य मुसीबत आती जाती ।
जीवन की हर सांस हो हिन्दी,
जीने का अहसास हो हिन्दी,
हिन्दी पढ़ना, हिन्दी लिखना,
हिन्दी बोले हर भारतवासी ।
डोर रेशमी हिन्दी भाषा,
बढ़ती अपनेपन की आषा,
‘अमन’ जोड़ती प्रेम-सूत्र में,
हिन्दी अपनी मातृभाषा
— मुकेश बोहरा अमन