अपनी अपनी जड़ें
जड़ें तो सबकी होती हैं
पुकारती भी हैं
कभी कभी दे जाती हैं टीस सी
रीढ़ की हड्डी
पूरे में कहीं सिहर सी जाती है
खिंचाव भी लगता है
और बहुत मन करने लगता है
दौड़कर जड़ों में
समाने का
पर पूरे पेड़ का परायापन
रोक लेता है और हम
कान बंद कर लेते हैं अपने
जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा
न जड़ों की पुकार
न अंतरात्मा की आवाज
सब कुछ बस गहरा शून्य